हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
अर्जुन कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर दो ही घड़ी में हम सब लोग उस ब्राह्मण के गाँव में पहुँचकर वहाँ ठहरने की व्यवस्था में लग गये और हमारे वाहन विश्राम करने लगे। कुरुनन्दन! इसके बाद चारों ओर से विशाल सेना से घिरा हुआ मैं उस गाँव के भीतर प्रविष्ट हुआ। उस समय मुख से आग उगलने वाले बहुत से पक्षी तथा क्रूरतापूर्ण बोली बोलने वाले मृग सामने आ गये और दाहयुक्त दिशा में अव्यक्त शब्द करते हुए मुझे भय की सूचना देने लगे। संध्या का रंग जपा-कुसुम के समान दिखायी दिया। सूर्यदेव प्रभावहीन प्रतीत हुए। आकाश से उल्कापात हुआ और पृथ्वी काँपने लगी। उस भयंकर एवं रोमान्चकारी बड़े-बड़े दारुण उत्पातों को देखकर सात्यकि आदि वृष्णि और अन्धकवंश के महारथियों ने उत्सुक चित्त वाले लोगों को तैयार हो जाने की आज्ञा दे दी। सबके रथ जोत दिये गये, सभी सुसज्जित हो गये। स्वयं मैं भी सब प्रकार से तैयार हो गया। जब आधी रात का समय बीत गया, तब ब्राह्मण भय से व्याकुल होकर हम लोगों के पास आया और भयभीत होकर इस प्रकार बोला- 'मेरी ब्राह्मणी के प्रसव का यह समय आ पहुँचा है, अब आप लोग इस तरह रहें, जिससे फिर धोखा न हो।' फिर तो दो घड़ी में ब्राह्मण के घर के भीतर दीनतापूर्वक रोदन की ध्वनि मुझे सुनायी दी। लोग कह रहे थे- ‘हाय! बालक को हर ले जाता है, हर ले गया’। फिर आकाश में मैंने अपहृत बालक का ‘ऊँह’ यह शब्द सुना, परंतु उसका अपहरण करने वाले राक्षस को मैं नहीं देख पाता था। तात! तब हम लोगों ने बाण-वर्षा करके चारों ओर से सम्पूर्ण दिशाओं को रूँध डाला तो भी उस बालक का अपहरण तो हो ही गया। उस कुमार का अपहरण मुझे अत्यन्त कड़वी खरी-खोटी बातें सुनानी आरम्भ कीं। वृष्णिवंशी वीरों का सारा मनसूबा चौपट हो गया, मेरी तो चेतना ही नष्ट-सी हो गयी। वह ब्राह्मण विशेषत: मुझसे इस प्रकार कहने लगा- ‘तुर्मते! तूने कहा था कि रक्षा करूँगा, किंतु रक्षा नहीं की। अत: अन्त में मेरी यह बात सुन, तू इसी का पात्र है! तू अमित बुद्धिमान भगवान श्रीकृष्ण के साथ सदा व्यर्थ ही स्पर्धा रखता है। यदि वे भगवान गोविन्द स्वयं यहाँ होते तो यह दुर्घटना नही होने पाती। मूढ़! जैसे रक्षा करने वालों क्षत्रिय रक्षित पुरुष के धर्म का चतुर्थाश फल पाता है, उसी प्रकार रक्षा न करने वाला पुरुष अरक्षित के पाप का भी भागी होता है। तूने घोषणा तो की थी कि ‘मैं रक्षा करूँगा’ परंतु तू रक्षा करने में समर्थ नहीं है। तेरा यह गाण्डवी धनुष व्यर्थ है! तेरा पराक्रम और यश भी व्यर्थ ही है।' उस ब्राह्मण से कुछ न कहकर मैं वृष्णि और अन्धकवंश के उन राजकुमारों के साथ प्रस्थित हो उस स्थान पर आया, जहाँ महातेजस्वी श्रीकृष्ण विराजमान थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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