हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 50 श्लोक 1-8

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


क्रथ और कैशिक द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का अपने राज्य का समर्पण, देवराज इन्द्र के आदेश से सब नरेशों द्वारा भगवान का राजेन्द्र के पद पर अभिषेक तथा भगवान का सबको आश्वासन देना

जनमेजय ने पूछा- मुने! जो देवताओं के लिये भी दुर्जय था, उस महापराक्रमी कंस का वध करके भगवान श्रीकृष्ण स्वयं न तो राज्य पर अभिषिक्त हुए और न राजा के आसन पर बैठे, इसका क्या कारण है?। भगवान श्रीकृष्ण कुण्डिनपुर में कन्या के लिये आये थे परंतु वहाँ भी वे निमन्त्रित अतिथि नहीं बनाये गये थे (अपने आप बिना बुलाये आये थे और अपने प्रभाव के कारण पूजित हुए थे)। ऐसे अनुपम अपमान को पाकर भी श्रीकृष्ण ने किसलिये क्षमा कर दी। विनता के पुत्र गरुड़ भी तो महान बल और पराक्रम से सम्पन्न हैं। उन्होंने भी किस कारण की अपेक्षा से क्षमाभाव धारण कर लिया? भगवन! यह मुझे बताइये, इसको सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतूहल हो रहा है।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! (क्रथ और कैशिक भगवान के भक्त थे। उन पर कृपा करने के लिये ही भगवान वहाँ स्वयं पधारे थे) जब भगवान श्रीकृष्ण के साथ विनतानन्दन गरुड़ भी विदर्भपुरी में गये, उस समय कैशिक ने उस वासुदेव के लिये मन-ही-मन इस प्रकार चिन्तन किया। (यदि हम दोनों भाई श्रीकृष्ण का अभिषेक करें तो) भगवान श्रीकृष्ण के आश्चर्यमय अभिषेक को देखकर हमारे पापों का नाश हो जायगा तथा सबके मन में विशुद्ध भाव का उदय होगा, अतः मैं राजाओं से कहूँगा- ‘वसुदेवपुत्र भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कर लेने पर निश्चय ही सबके पापों का क्षय हो जाता है। हम दोनों ने श्रीकृष्ण के तत्त्व का साक्षात्कार किया है। तीनों लोकों में उन कमलनयन देवाधिदेव जनार्दन श्रीकृष्ण से बढ़कर सुपात्र दूसरा कौन है।

'नरेश्वर! हम दोनों उनके आतिथ्य-सत्कार के समय उन्हें कौन-सी ऐसी वस्तु भेंट करें, जिससे उत्तम पात्र को पाकर उसका समुचित आदर न करने के कारण हमारे धर्म का लोप न होने पावे’। इस प्रकार दोनों भाई क्रथ और कैशिक आपस में विचार करके अपना राज्य समर्पित करने की इच्छा से भगवान केशव के निकट गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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