हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-18

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकविंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

अरिष्टासुर का वध

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! एक दिन आधा प्रदोष (अर्थात डेढ़ घंटा रात) बीतने पर जब भगवान श्रीकृष्‍ण रासक्रीड़ा में संलग्र थे, उसी समय सारे व्रज को त्रास देता हुआ मत वाला अरिष्टासुर वहाँ दिखायी दिया। वह बूझे हुए अंगार (कोयले) तथा मेघों के समान काला था, उसके सींग तीखे थे और आंखे सूर्य के समान तेजस्‍विनी दिखायी देती थी। उसके चरणों के अग्रभाग अथवा खुर छुरे के समान तेज थे। वह काला दैत्‍य दूसरे काल के समान जान पड़ता था। वह दांत से ओठों को चबाता और जिह्वा से उन्‍हें बारम्‍बार चाटता था। उसने बल के घमण्‍ड में आकर पूंछ उठा रखी थी तथा उसके कंधे का कूबड़ बहुत ही कठोर था। वह अपने कंधे के कूबड़ से चोट करके बने बनाये महल आदि को धराशायी कर देता था। उसकी ऊंचाई इतनी थी कि उसे लांघकर जाना किसी के लिये भी बहुत कठिन था। उसके पिछले अंग गोबर और मूत से लिप्‍त हो रहे थे तथा वह गौओं को अत्‍यन्‍त उद्वेग में डाल देता था। उसका कटिभाग विशाल था और मुख स्‍थूल था, दोनों घुटने सुदृढ़ थे और पेट बहुत बड़ा था। उसके गले का कंबल लटक रहा था और वह सींग नीचे किये उछलता-कूदता आगे बढ़ रहा था। वह गौओं के पिछले भाग पर चढ़ने के लिये चंचल हो रहा था। वृक्षों से टक्‍कर लेने के कारण उसके मस्‍तक में कई जगह घट्ठे पड़ गये थे। वह अपने सींगों के अग्रभाग को सदा जूझने के लिये उद्यत रखता था तथा विपक्षी बैलों को मार डालता था। भयानक आकार वाला वह अरिष्‍टासुर गौओं के लिये अरिष्‍टकारक ग्रह बन गया था।

वह दैत्‍य बैल के रूप में आकर सभी गोठों में दौड़ लगाया करता था। वह गौओं के गर्भ गिरा देता था। मदमत्त होकर बिना ऋतु के ही उनसे समागम करता तथा वह चंचल दैत्‍य तुरंत की ब्‍यायी हुई गौओं का भी उपभोग करने के लिये उनके पीछे पड़ा रहता था। सींग ही उसके आयुध थे। वह बड़ा भयंकर एवं दुर्मुद प्रतीत होता था गौओं पर प्रहार करना उसका नित्‍य का काम था। वह वृषभरूपधारी असुर भगवान श्रीकृष्‍ण के सामने आया। मदमत्‍त अरिष्‍टासुर वहाँ आते ही बलपूर्वक गौओं को सताने लगा। उसने उस गोष्ठ को बैल, बछड़ों तथा बालकों से सूना कर दिया। इस समय काल के वश में पड़ा हुआ वह दुष्‍टात्‍मा दैत्‍य श्रीकृष्‍ण के पास खड़ी हुई गौओं को त्रास देने लगा। उस समय गर्जना करता हुआ वह महान असुर इन्‍द्र के वज्र की गड़गडाहट के साथ आकाश में छाये हुए मेघ के समान जान पड़ता था। उसे मोह में डालने के लिये श्रीकृष्‍ण ने ताल ठोंका और सिंहनाद किया। फिर वे भगवान गोविन्‍द उस वृषभरूप धारी दैत्‍य की ओर दौड़े।

श्रीकृष्‍ण को देखते ही उस बैल ने हर्ष में भरकर अपनी पूंछ उठायी और उसके नेत्र भी खिल उठे उनके ताल ठोंकने के शब्‍द से वह रोष में भरा हुआ था, अत: युद्ध की इच्‍छा से गर्जना करने लगा। बैल का रूप धारण करके अपनी ओर आते हुए उस दुराचारी दैत्‍य को देखकर भी श्रीकृष्‍ण उस स्‍थान से तनिक भी इधर-उधर नहीं हुए, पर्वत के समान अविचलभाव से खड़े रह गये। उस वृषभ ने श्रीकृष्‍ण के पेट में दृष्टि जमाकर उधर ही मस्‍तक भिड़ाया और उनके वध की इच्‍छा रखकर तुरंत ही उछला। काले अंजन के समान श्‍याम शरीर वाले श्रीकृष्‍ण उस बैल का सामना करने के लिये विपक्षी सांड़ के समान प्रतीत होते थे। उन्‍होंने वेग से अपनी ओर आते हुए उस दुर्धर दैत्‍य को पकड़ लिया। फिर तो श्रीकृष्‍ण उसके साथ इस तरह उलझ गये, जैसे एक सांड़ के साथ दूसरा महासांड़ भिड़ गया हो। अरिष्‍टासुर हांफता हुआ अपनी नाक और मुख से फेन छोड़ने लगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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