हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 114 श्लोक 1-20

Prev.png

हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्दशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को अपने यथार्थ स्वरूप का परिचय देना

अर्जुन कहते हैं- राजन! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण कई सौ ऋषितुल्य ब्राह्मणों को भोजन कराकर कृतकृत्य हुए। भारत! तत्पश्चात मेरे और वृष्णि तथा भोजवंशी वीरों के साथ स्वयं भी भोजन करके वे सर्वथा दिव्य एवं विचित्र कथाएँ सुनाने लगे। फिर कथा के अन्त में जनार्दन श्रीकृष्ण के पास जाकर मैंने जो कुछ देखा था, उसका यथावत वृत्तान्त पूछा- कमलनयन अच्युत! आपने समुद्र के जल को स्तम्भित कैसे कर दिया? तथा पर्वतों में छेद या अवकाश किस तरह बना दिया? उस घोर एवं घने अन्धकार को किस प्रकार चक्र से विदीर्ण किया और वह जो परम उत्कृष्ट तेज था, उसमें आप किस प्रकार प्रविष्ट हुए? प्रभो! उस परम तेज: स्वरूप पुरुष ने उस समय ब्राह्मण-बालकों का अपहरण किसलिये किया था? और वह जो विशाल मार्ग था, उसे आपने इतना संक्षिप्त कैसे कर दिया? केशव! इतने थोड़े समय में हम लोगों का वहाँ तक जाना-आना कैसे सम्भव हुआ? यह सब वृत्तान्त मुझे यथार्थ रूप से बताइये। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन! उन महात्मा तेजस्वी पुरुष ने मुझे देखने के लिये ही उन बालकों का अपहरण किया था। वे जानते थे कि ब्राह्मणों के कार्य के लिये ही श्रीकृष्ण आयेंगे, अन्यथा नहीं। भरतश्रेष्ठ! तुमने जिस दिव्य तेजोमय महद्ब्रह्म का दर्शन किया था, वहाँ मैं ही हूँ। वह मेरा सनातन तेज है। वह मेरी व्यक्ताव्यक्त स्वरूपा सनातन पराप्रकृति है, जिसमें प्रवेश करके योगवेत्ताओं में उत्तम पुरुष मुक्त हो जाते हैं।

पार्थ! वही सांख्ययोगियों, कर्मयोगियों तथा तपस्वी पुरुषों की गति है। वही परमब्रह्म पद है, जो सम्पूर्ण जगत का विभाजन करता है- चेतन से जड़ को पृथक करता है। भारत! वह जो घनीभत तेज था, उसे मेरा स्वरूप समझों। जिनके जल का स्तम्भन किया गया था, वह समुद्र मैं ही हूँ और जल का स्तम्भन करने वाला भी मैं ही हूँ। वे सात पर्वत जिन्हें तुमने नाना रूपों में देखा था, मैं ही हूँ और कीचड़ के रूप में जो अन्धकार दृष्टिगोचर हुआ था, वह भी मैं ही हूँ। मैं ही घनीभूत अन्धकार और में ही उसे विदीर्ण करने वाला हूँ। मैं ही समस्त भूतों का काल और मैं ही उनका सनातन धर्म हूँ। चन्द्रमा, सूर्य, बड़े-बड़े पर्वत, सरिताएँ और सरोवर भी मैं ही हूँ। ये जो चारों दिशाएँ हैं, वे सब-की-सब मेरा ही चतुव्रिध रूप हैं। भारत! चारों वर्ण तथा चारों आश्रम मुझसे ही प्रकट हुए हैं। जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज- इन चार प्रकार के प्राणियों की सृष्टि करने वाला मैं ही हूं, इस बात को तुम अच्छी तरह जान लो। तब मैं (अर्जुन) ने कहा- भगवन्! सर्वभूतेश्वर! प्रभो! पुरुषोत्तम! आपको नमस्कार है। मैं आपके स्वरूपों को भली-भाँति जानना चाहता हूँ, इसीलिये उसके विषय में आपसे जिज्ञासा करता हूँ और आपकी शरण में आया हूँ। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- पाण्डुनन्दन भारत! ब्रह्म, ब्राह्मण, तप, सत्य, उग्र (संसारबन्धन) और बृहत्तम (कैवल्य)- ये सब मुझ से ही प्रकट होते हैं, ऐसा समझो। महाबाहु धनंजय! मैं तुम्हें प्रिय हूँ और तुम मुझे। इसीलिये मैं तुमसे इस रहस्य का वर्णन करता हूँ, अन्यथा कदापि नहीं कह सकता। भरतश्रेष्ठ! मैं ही यजुर्वेद, सामवेद, ऋग्वेद और अथर्ववेद हूँ। ऋषि, देवता और यज्ञ मेरे ही तेज हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः