हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-16

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

बलराम और श्रीकृष्‍ण आदि यादवों की जलक्रीड़ा एवं गान आदि का वर्णन

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बलराम जी अपने अंगों में चन्‍दन से चर्चित थे। मधु पीकर वे बड़े मनोहर लग रहे थे। उनकी शोभा बहुत बढ़ी हुई थी। नेत्र कुछ-कुछ लाल थे तथा भुजाएँ बहुत बड़ी थीं। वे रेवती देवी का सहारा लेकर सुललित गति से चल रहे थे। उन्‍होंने श्‍याम मेघ के समान कान्ति वाले दो नील वस्‍त्र धारण कर रखे थे। उनकी अंग कान्ति चन्‍द्रमा की किरणों के समान गौर थी और मधुमती आंखें अलसायी सी जान पड़ती थीं। समुद्र के बीच में आकर भगवान बलराम जी सम्‍पूर्ण विम्‍ब वाले चन्‍द्रमा के समान शोभा पा रहे थे। उनके एकमात्र बांये कान में निर्मल कुण्‍डल की शोभा फैल रही थी। उन्‍होंने दूसरे कान में मनोहर कमल को ही कर्णभूषण के रूप में धारण कर रखा था। उनकी प्रिया रेवती मन्‍द मुस्‍कान और बांकी चितवन के साथ उनकी ओर सुखपूर्वक निहार रही थी तथा बलराम जी उनके साथ आनन्‍दमग्न हो रहे थे। तदनन्‍तर कंस और निकुम्भ के शत्रु श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से अप्‍सराओं का उदार एवं सुन्‍दर रूप वाला समुदाय स्‍वर्ग के समान समृद्धिशाली समुद्र में रेवती का दर्शन करने के लिये प्रसन्‍नतापूर्वक उनके पास आया। उन सबके अंग छड़ी के समान पतले और मनोहर थे। उन समस्‍त सुन्‍दरियों ने उन रेवती देवी और बलराम जी को नमस्‍कार करके बाजे के लय पर नाचना आरम्‍भ किया। दूसरी अप्‍सराएं, उन्‍हें सब ओर से घेरकर उत्‍तम रीति से गीत गाने लगीं। वे अप्‍सराएं बलराम और रेवत राजकुमारी रेवती की आज्ञा से अभिनयपूर्वक ऐसा खेल खेलने लगीं, जो इन यादवों को प्रिय, सार्थक, मनोरम और अनुकूल प्रतीत हो। अपने अंगों में मंगलसूचक श्रृंगार धारण करने वाली वे सुन्‍दरी अप्‍सराएँ उस देश की भाषा, आकृति और वेश से युक्‍त हो हँसती और हाथों पर ताल देती हुई लीलापूर्वक ललित रास (नृत्‍य–गान) करने लगीं।

वीर! उस रास में वे श्रीकृष्‍ण और बलराम को आनन्‍द देने वाली उनकी मंगलमयी लीलाओं का संकीर्तन करती थीं। कंस और प्रलम्‍ब आदि के वध का रमणीय प्रसंग रंगशाला में चाणूर आदि का घात, जिसके कारण यशोदा ने जनार्दन का दामोदर और यश फैलाया, वह ऊलूख बन्‍धन की लीला, अरिष्टासुर और धेनुकासुर का वध, व्रज में निवास, पूतना का वध, यमलार्जुन-भंग, भेड़िये की सृष्टि, वत्‍सासुर का वध, यमुना के हृदय में श्रीकृष्‍ण द्वारा दुरात्‍मा नागराज कालिय का दमन, शंखनिधि से युक्‍त उस यमुनाह्रद से मधुसूदन श्रीकृष्‍ण द्वारा कमलों और उत्‍पलों का उखाड़ा जाना, गौओं की रक्षा के लिये जनार्दन श्रीकृष्‍ण द्वारा गोवर्धन-धारण, सुगन्‍धयुक्‍त अनुलेपन पीसने वाली कुब्‍जा के कुब्‍जत्‍व का उनके द्वारा निवारण आदि लीला प्रसंग जैसे-जैसे हुए थे, उन सबका वे अप्‍सराएं गान करती थीं। राजन! अनवद्य (स्‍तुत्‍य) और अजन्‍मा श्रीकृष्‍ण ने अपने अवामन (विराट) स्‍वरूप को भी जिस प्रकार वामन बना लिया, जिस प्रकार सौभ विमान को मथ डाला तथा बलराम ने जिस तरह हलरूप आयुध ग्रहण किया, श्रीकृष्‍ण द्वारा जिस प्रकार देव शत्रु मुर का वध किया गया, गान्‍धार राजकन्‍या शैव्‍या के विवाह में जिस प्रकार बलशाली राजाओं को रथ में जोता या बांधा गया, सुभद्रा हरण के समय जिस प्रकार अर्जुन की विजय हुई, बालाहक और जम्‍बूमाली के साथ होने वाले युद्ध में जिस प्रकार श्रीकृष्‍ण आदि को विजय प्राप्‍त हुई, युद्ध में जीते गये राक्षसों द्वारा इन्‍द्र के सामने ही जो रत्‍न राशि द्वारका पहुँचायी गयी; इनको तथा अन्‍य चरित्रों को, जो यादवों को प्रसन्‍न करने वाले थे, उन मनोहर रूप वाली अप्‍सराओं ने गाया। श्रीकृष्‍ण और बलराम को हर्ष प्रदान करने वाले जो उनकी अनेक लीलाकथाओं से सम्‍बन्‍ध रखने वाले विचित्र गीत थे, उन सबका उन्‍होंने गान किया। तदनन्‍तर मधुपान से मत्‍त हुए परम शोभायमान बलराम अपनी पत्‍नी रेवतराजकुमारी रेवती के साथ हाथ पर ताल देते हुए मधुर स्‍वर में सम[1] स्‍थान के प्रदर्शनपूर्वक गीत गाने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संगीत में वह स्थान, जहाँ गाने-बजाने वालों का सिर या हाथ आप-से-आप हिल जाता है। वह स्थान ताल के अनुसार निश्चित होता है। जैसे तिताले में दूसरे ताल पर और चौताल में पहले ताल पर सम होता है। इसी प्रकार भिन्न तालों से भिन्न-भिन्न स्थानों पर सम होता है। परन्तु गाने बजाने के बीच-बीच में भी सम बराबर आता है।

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