हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 88 श्लोक 64-81

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचाशीतितम अध्याय: श्लोक 64-81 का हिन्दी अनुवाद

यादवों के वे जलयान समुद्र के जल में सब ओर चक्‍कर लगा रहे थे। वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो गन्‍धर्वों के नगर आकाश में विचर रहे हों। भारत! नन्‍दन वन की आकृति और समृद्धियों से युक्‍त यान पात्रों में विश्वकर्मा ने सब कुछ नन्‍दन-जैसा ही बना दिया था। उद्यान, सभा, वृक्ष, झील और झरने (या फौवारे) आदि शिल्‍प सर्वथा वैसे ही उनमें समाविष्‍ट किये गये थे। वीर! स्‍वर्ग- जैसे बने हुए दूसरे जलयानों में विश्‍वकर्मा ने भगवान नारायण की आज्ञा से स्‍वर्ग की-सी सारी वस्‍तुएं संक्षेप से रच दी थीं। वहाँ के वनों में पक्षी हृदय को प्रिय लगने वाली मधुर बोली बोलते थे। उनकी वह बोली उन अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी यादवों को बहुत ही मनोहर प्रति होती थी। देवलोक में उत्‍पन्‍न हुए सफेद कोकिल उस समय यादव वीरों की इच्‍छा के अनुसार विचित्र एवं मधुर आलाप छेड़ रहे थे। चन्‍द्रमा की किरणों के समान रूपवाली श्‍वेत अट्टालिकाओं पर मीठी बोली बोलने वाले मोर दूसरे मोरों से घिरकर नृत्‍य करते थे। विशाल जलयानों पर लगी हुई सारी पताकाओं की लड़ियाँ बँधी थीं, उन पर आसक्‍त होकर रहने वाले भ्रमर वहाँ गुंजारव फैला रहे थे। नारायण (श्रीकृष्‍ण) की आज्ञा से वृक्ष तथा ऋतुएं आकाश में स्थित हो मनोहर रूप वाले पुष्‍पों की अधिक वर्षा करने लगीं। रति जनित खेद अथवा श्रम को हर लेने वाली मनोहर एवं सुखदायिनी हवा चलने लगी, जो सब प्रकार के फूलों के पराग से संयुक्‍त तथा चन्‍दन की शीतलता को धारण करने वाली थी।

पृथ्‍वीपते! क्रीड़ा में तत्‍पर होकर सर्दी-गर्मी की इच्‍छा रखने वाले यादवों को उस समय वहाँ भगवान वासुदेव की कृपा से वह सब उनकी रुचि के अनुकूल प्राप्‍त होती थी। भगवान चक्रपाणि के प्रभाव से उस समय उन भीम-वंशियों के भीतर न तो भूख-प्‍यास, न ग्‍लानि, न चिन्‍ता और न शोक का ही प्रवेश होता था। अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी यादवों की समुद्र के जल में होने वाली क्रीड़ाएं निरन्‍तर चल रही थीं। उनमें बड़े-बड़े वाद्यों की ध्‍वनि शान्‍त नहीं होती थी तथा गीत और नृत्‍य उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। श्रीकृष्‍ण द्वारा सुरक्षित वे इन्‍द्रतुल्‍य तेजस्‍वी यादव अनेक योजन विस्‍तृत समद्र के जलाशय को रोककर क्रीड़ा कर रहे थे। विश्‍वकर्मा ने महात्‍मा भगवान नारायण देव के लिये उनके विशाल परिवार (सोलह हजार रानियों के समुदाय) के अनुरूप ही जहाज बना रखा था। प्रजानाथ! तीनों लोकों में जो विशिष्ट रत्‍न थे, वे सभी अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी श्रीकृष्‍ण के उस यानपात्र में लगे थे। भारत! श्रीकृष्‍ण की स्त्रियों के लिये उसमें पृथक-पृथक निवास स्‍थान बने थे, जो मणि और वैदूर्य से जटित होने के कारण विचित्र शोभा से सम्‍पन्‍न तथा सुवर्ण से विभूषित थे। उन गृहों में सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूल लगाये थे। वहाँ सभी तरह के उत्‍तम सुगन्‍ध फैलकर उन भवनों को सुवासित कर रहे थे। श्रेष्‍ठ यादव-वीर तथा स्‍वर्गवासी पक्षी उन निवास स्‍थानों का सेवन करते थे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्‍तर्गत विष्‍णु पर्व में भानुमतीहरण विषयक अट्ठासीवां अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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