हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 107 श्लोक 1-21

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्‍ताधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

प्रद्युम्न के द्वारा शम्‍बरासुर का वध

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब क्रोध में भरे हुए शम्‍बरासुर ने वह मुदगर हाथ में लिया। उसे लेते समय सहसा बारह सूर्य प्रकट हो गये। समस्‍त पर्वत हिलने लगे, पृथ्‍वी कांप उठी, सब समुद्र ऊपर को उछलने लगे, इसी प्रकार समस्‍त देवताओं में भी क्षोभ फैल गया। आकाश में गीधों के समूह मंडराने लगे, उल्‍कापात होने लगा, बादल रुधिर बरसाने लगे और अत्‍यन्‍त रूखी वायु चलने लगी। वीर प्रद्युम्न इस प्रकार के महान उत्‍पातों को देखकर फुर्ती के साथ रथ से नीचे उतर दोनों हाथ जोड़कर खडे़ हो गये। वे मन-ही-मन भगवान शंकर की प्रिया देवी पार्वती का स्‍मरण करने लगे। उन्‍होंने सिर झुकाकर देवी को प्रणाम करके उनकी स्‍तुति आरम्‍भ की। प्रद्युम्‍न ने कहा- 'सच्चिदानन्‍दमयी कात्‍यायनी देवी को प्रणाम है। पर्वतों की स्‍वामिनी पार्वती देवी को बारम्‍बार नमस्‍कार है। तीनों लोकों की माया स्‍वरूप कात्यायनी देवी को मेरा बारम्‍बार अभिवादन है। शत्रुओं को नष्‍ट करने वाली गौरी देवी को बारम्‍बार प्रणाम है। शिवप्रिये! शुम्‍भ दैत्‍य को मथ डालने वाली और निशुम्‍भ को भी रौंदने वाली आपको मैं प्रणाम करता हूँ। कालरात्रि! आपको प्रणाम है। कौमारी शक्तिरूपा आपको बारम्‍बार नमस्‍कार है। मैं कान्‍तारवासिनी देवी को हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। मैं विन्‍ध्‍याचल में निवास करने वाली, विपत्तियों को नष्‍ट करने वाली, रणचण्‍डी, रणप्रिया, जया और विजया नाम वाली महादेवी को प्रणाम करता हूँ। मैं महिषासुर का संहार करने वाली त्रिशूलधारिणी देवी को नमस्‍कार कर‍ता हूँ। सिंह पर सवार होने वाली और सिंह के चिह्न से अलंकृतश्रेष्ठ ध्‍वजा वाली देवी को मैं प्रणाम करता हूँ।

मैं एकानंशा देवी को प्रणाम करता हूँ, यज्ञों में पूजित गायत्री देवी को नमस्‍कार करता हूँ और विप्रों की सावित्री (रूप से उपास्‍य) देवी को भी मैं हाथ जोड़कर अभिवादन करता हूँ। देवि! आप सर्वदा मेरी रक्षा कीजिये और संग्राम में मुझे विजय प्रदान कीजिये।' कामस्‍वरूप प्रद्युम्न के ऐसे प्रार्थनापूर्ण वचनों से दुर्गा देवी संतुष्‍ट हो गयीं। उनका मन प्रसन्‍न हो गया। तदनन्‍तर दुर्गा देवी ह्दय में अत्‍यन्‍त आह्वादित हो यह वचन कहने लगीं- 'रुक्मिणी के आनन्‍द को बढ़ाने वाले महाबाहु प्रद्युम्‍न! (मेरी ओर) देख! देख!! मेरा दर्शन अमोघ है, अत: वत्‍स! तू मनोवांछित वर मांग ले।' देवी के इस वचन को सुनकर प्रद्युम्‍न रोमान्चित हो गये, हर्ष से उनका हृदय उछलने लगा। तब उन्‍होंने सिर झुकाकर देवी को प्रणाम करके उनसे इस प्रकार निवेदन किया- 'देवि! यदि आप प्रसन्‍न हैं तो मैं जो चाहता हूँ, वह मुझे दीजिये। वरदे! मैं यह वर मांगता हूँ कि सब शत्रुओं पर मुझे विजय प्राप्‍त हो और अपने शरीर से प्रकट किया हुआ जो मुद्गर आपने शम्‍बरासुर को दिया है, वह मेरे शरीर पर प्राप्त होकर कमलों की माला बन जाय।' तब देवी ‘ऐसा ही होगा’ यह कहकर वहाँ ही अन्‍तर्धान हो गयी। तब महातेजस्‍वी प्रद्युम्‍न संतुष्‍ट होकर रथ पर आरूढ़ हुए। उधर क्रोध से अचेत हुए पराक्रमी शम्‍बर ने उस मुदगर को हाथ में लेकर घुमाया और प्रद्युम्‍न की छाती पर दे मारा। प्रद्युम्‍न के निकट जाकर वह मुद्गर कमल-पुष्‍पों की माला बन गया। वह माला प्रद्युम्‍न के कण्‍ठ में आसक्‍त होकर अतिशय शोभा पाने लगी। उस समय वे नक्षत्रों की माला से घिरे हुए चन्‍द्रमा की भाँति सुशोभित हुए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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