हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-20

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्दश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

बलराम द्वारा प्रलम्बासुर का वध

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर हर्ष में भरे हुए वे दोनों वसुदेवकुमार उस तालवन को छोड़कर पुन: भाण्डीर वट के पास आ गये। वहाँ वे हष्ट-पुष्ट और सुन्दर गोधनों को चराते तथा बढ़ी हुई खेती से सम्पन्न वन स्थलियों की शोभा निहारते हुए विचरने लगे। शत्रुओं को संताप देने वाले वे दोनों भाई कभी ताल ठोंकते, कभी गीत गाते, कभी वृक्षों के फल-फूल और पत्ते तोड़ते और कभी बछड़े वाली गौओं को उनके नाम ले-लेकर पुकारते थे। कंधे पर गौ बांधने की रस्सी डाले, सुन्दर लक्षणों से सम्पन्न तथा वनमाला से विभूषित वक्ष:स्थल वाले वे दोनों वीर नये सींगों वाले बछड़ों के समान शोभा पाते थे। उन दोनों में से एक के शरीर की कान्ति सुवर्ण- चूर्ण के समान गौर थी, तो दूसरे की अंजन-चूर्ण के समान श्‍याम। वे एक-दूसरे के अंगों के समान रंग वाले वस्त्र धारण करते थे (अर्थात गोरे बलभद्र का वस्त्र श्रीकृष्ण की अंगकान्ति के समान नीला था और श्‍यामसुन्दर श्रीकृष्ण का वस्त्र बलभद्र की अंगप्रभा के समान सुनहरा एवं पीला था)। वे दोनों इन्द्रधनुष से सटे हुए श्‍वेत और काले रंग के दो बादलों के समान जान पड़ते थे। वे दोनों वन के मार्गों पर कुशों के अग्रभाग तथा फूलों के मनोरम कर्णपूर बनाकर धारण करते और वन्य वेष ग्रहण करके शोभा पाते थे। वन में उन दोनों के पीछे चलने वाले बहुत-से गोप-बालक थे। उन्हें साथ लेकर वे दोनों भाई गोवर्धन के आस-पास विचरा करते थे। वे कभी किसी से पराजित होने वाले नहीं थे। भाण्‍डीर वट के पास लोक-प्रचलित बालक्रीड़ाओं द्वारा मन बहलाते हुए श्रीकृष्ण और बलराम विचरण करने लगे।

इस प्रकार देवताओं द्वारा पूजित होने पर भी वे दोनों मानवी दीक्षा ग्रहण करके मनुष्य-जाति के गुणों से युक्‍त क्रीड़ाएं करते हुए वन में घूमने लगे। भाण्‍डीर के निकट आकर बालोचित क्रीड़ा में लगे हुए वे दोनों भाई उस उत्तम शाखाओं से सम्पन्न एवं वृक्षों में श्रेष्ठ वट के नीचे आ गये। युद्ध की प्रणाली में परम चतुर वे दोनों भाई वहाँ कभी झूला झूलकर और कभी फेंकने योग्य पत्‍थर फेंककर व्‍यायाम करने लगे। नाना प्रकार के युद्ध के पैंतरे दिखाते हुए वे दोनों सिंह के समान पराक्रमी वीर ग्वालबालों के साथ रहकर अपनी इच्‍छा के अनुसार सानन्द विचरने लगे। वे दोनों जब इस प्रकार खेल का आनन्द ले रहे थे, उसी समय उन्हें उठा ले जाने की इच्‍छा से असुरों में श्रेष्ठ प्रलम्ब एक गोपबालक का वेष धारण करके वहाँ आया। उसने वन्य-पुष्पों से अपने-आपको विभूषित कर रखा था। वह उस समय उनका छिद्र (उन्हें उठा ले जाने का अवसर) ढूँढ़ रहा था और उन दोनों वीरों को अपने हँसी-खेल से लुभा रहा था। दानवप्रवर प्रलम्ब मनुष्य न होने पर भी मनुष्य का शरीर धारण करके नि:शंकभाव से उन बालकों के बीच घुस गया। वे सब बालक उस देवद्रोही के साथ खेलने लगे।

वह ग्वाल बाल का वेष धारण करके आया था, इसलिये समस्त गोप उसे अपना भाई-बन्धु ही मानते थे। परंतु गोपवेष में आया हुआ प्रलम्ब उन दोनों वीरों की दुर्बलता का अवसर ढूँढ़ रहा था, इसलिये उसने श्रीकृष्ण और बलराम पर क्रूरतापूर्ण दृष्टि डाली। श्रीकृष्ण का पराक्रम अद्भुत था, इसलिये उन्हें अजेय मानकर उस दानवराज ने रोहिणीकुमार बलराम जी को मारने का प्रयत्‍न किया। तदनन्तर वे सब ग्वालबाल हरिणाक्रीडन[1] नामक बालोचित खेल खेलने लगे। उसमें दो-दो बालक एक साथ उछलते हुए कुछ दूर जाते थे। निष्पाप जनमेजय! श्रीदामा के साथ श्रीकृष्ण और ग्वालबाल के वेष में आये हुए प्रलम्ब के साथ संकर्षण कूद-कूदकर चलने लगे। इसी तरह दूसरे ग्वाल बाल अन्य ग्वालबालों के साथ दो-दो की जोड़ी बनाकर एक-दूसरे को लांघ जाने का प्रयत्‍न करते हुए शीघ्र गति से उछलते हुए चलने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक निश्चित लक्ष्य के पास एक साथ दो-दो बालक हिरन की भाँति उछलते हुए जाते हैं। जो दोनों में पहले पहुँच जाता है, वह विजयी होता है। हारा हुआ बालक जीते हुए को अपनी पीठ पर चढ़ाकर मुख्‍य स्थान तक ले आता है, यही हरिणाक्रीडन है।

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