हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्ताशीतितम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! नारद जी की बात को ठीक से सुनकर महान् असुर अन्धक ने मन्दराचल पर जाने का विचार किया। वह महातेजस्वी, महाबली दैत्य बहुत-से असुरों को एकत्र करके कुपित हो उस समय महादेव जी के निवास स्थान मन्दर पर्वत पर गया। वह पर्वत बड़े-बड़े मेघों से आच्छादित, महौषधियों से सम्पन्न, नाना प्रकार के सिद्धों से भरा हुआ और महर्षियों के समुदाय से सेवित था। वहाँ सब ओर चन्दन और अगुरु के वृक्ष शोभा पाते थे। सरल (चीड़) के वृक्ष सर्वत्र फैले हुए थे। किन्नरों के उच्च स्वर से गाये जाने वाले मधुर गीतों से उसकी रमणीयता बढ़ गई थी। वह बहुत-से नागकुलों (हाथियों अथवा सर्पों) से व्याप्त था। कहीं वायु के वेग से कम्पित हुए प्रफुल्ल काननों द्वारा वह नृत्य करता-सा जान पड़ता था। कहीं पिघलकर बहे हुए विचित्र धातुओं के कारण वह चन्दन आदि से चर्चित हुआ-सा प्रतीत होता था। कहीं पक्षियों के अत्यन्त मधुर शब्दों से वह पर्वत गरजता या कोलाहल करता-सा जान पड़ता था। पवित्र स्थानों पर बैठने वाले हंस वहाँ इधर-उधर उड़ते-फिरते थे। जिनसे सारा पर्वत व्याप्त प्रतीत होता था। वहाँ दैत्यों का विनाश करने में समर्थ महाबली भैंसे विचरण करते थे। चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल कान्ति वाले सिंह उस पर्वत की शोभा बढ़ाते थे। वह समस्त शैल सुवर्ण की राशिरूप था। वहाँ बहुत-से मृगराज (सिंह) सब ओर बिखरे हुए थे। झुंड-के-झुंड मृग उस पर्वत का सेवन करते थे। वह मन्दर पर्वत देवता रूप में मूर्तिमान होकर अन्धकासुर के सामने प्रकट हुआ। उसे देखकर बल के घमंड में भरे हुए अन्धकासुर ने कहा- ‘महागिरे! यह तो तुम जानते ही होंगे कि मैं किस प्रकार अपने पिता के वरदान से सबके लिये अवध्य हूँ। चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी इस समय मेरे वश में है। कोई भी भय के कारण मुझसे युद्ध करना नहीं चाहता। मुझे पता लगा है कि तुम्हारे शिखर-पर सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाले पुष्पों से विभूषित एक पारिजात वन है, जो यहाँ का उत्तम रत्न है। वह कहाँ है, उसे बताओ? मैं तुम्हारे शिखर पर उत्पन्न हुए उस वन का उपभोग करूँगा। मेरा मन उसमें जाने के लिये उतावला हो उठा है। तुम कुपित होकर मेरा क्या कर लोगे? मुझे ऐसा कोई पुरुष नहीं दिखाई देता, जो मेरे द्वारा पीड़ित होने पर तुम्हारी निश्चित रूप से रक्षा कर सके।' उसके ऐसा कहने पर मन्दराचल का वह अधिष्ठाता देव वहीं अन्तर्धान हो गया। तब वरदान से घमंड में भरा हुआ अन्धक अत्यन्त रूष्ट हो बड़े जोर से सिंहनाद करने लगा और इस प्रकार बोला- ‘अरे पर्वत! मेरे याचना करने पर भी जो तू मुझे अधिक सम्मान नहीं दे रहा है, इससे कुपित होकर मैं तुझे अभी चूर्ण किये देता हूँ। देख ले मेरा बल। ऐसा कहकर वरदान से दर्प में भरे हुए उस पराक्रमी दैत्य ने उन सब असुरों के साथ मन्दराचल के एक शिखर को, जो अनेक योजन विस्तृत था, उखाड़ लिया और उसे उसी पर्वत के दूसरे शिखरों पर पटककर पीस डाला। उस महान् पर्वत ने अपनी नदियों के समुदाय को भी छिपा लिया। उसकी परिस्थिति को समझकर भगवान रुद्र ने उस पर्वत पर अनुग्रह किया। वीर! भगवान के अनुग्रह से पारिजात आदि विशेषतर वनों से युक्त, मत वाले हाथियों और मृगों से सम्पन्न तथा आकाश से गिरे हुए बहुसंख्यक नदी समूहों से व्याप्त वह विचित्र काननों वाला पर्वत जैसा पहले था, उसी रूप में प्रकाशित होने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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