हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 117 श्लोक 1-19

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

शिव-पार्वती का क्रीड़ा विहार, पार्वती का उषा को पतिसमागम के लिये वर देना तथा उषा की विरह-व्यथा का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! किसी समय प्रभावशाली भगवान शंकर गंगा नदी के शोभासम्पन्न रमणीय तट पर देवी पार्वती के साथ क्रीड़ा-विहार के लिये गये। वहाँ सब ऋतुओं की शोभा से सुशोभित सर्वर्तुक वन में सब ओर से सैकड़ों अप्सराएँ तथा गन्धर्वराज क्रीड़ा कर रहे थे। पारिजात और संतानक नामक कल्‍पवृक्ष के पुष्पों द्वारा उस नदी तट का सारा आकाश उद्दाम सुगन्ध से व्याप्त हो रहा था। वेणु, वीणा, मृदंग और पणव आदि सहस्रों वाद्यों की मधुर ध्वनि के साथ अप्सराओं का मनोहर गीत उन्होंने सुना। अप्सराओं के समुदाय सूत और मागधों के वचनों द्वारा भगवान शिव की स्तुति करते थे। सुन्दर शरीरधारी देवाधिदेव महादेव फूलों के हार धारण किये लाल रंग के वस्त्र से सुशोभित थे। उन श्री महेश्वर का रूप बड़ा ही मनोरम था। सब अप्सराएँ वहाँ उन देवाधिदेव की पूजा करती थीं। इसी समय चित्रलेखा नाम वाली श्रेष्ठा अप्सरा देवी पार्वती का रूप धारण करके महादेव जी को रिझाने लगी। यह देखकर देवी पार्वती उस समय जोर-जोर से हँसने लगीं। महादेवजी को रिझाने में लगी हुई उस चित्रलेखा को लक्ष्य करके दूसरी अप्सराएँ भी हँसने लगीं। भगवान शंकर के जो नाना रूपधारी दिव्य एवं महाबली पार्षद थे, वे सब देवी पार्वती की आज्ञा से विभिन्न स्थानों में क्रीड़ा कर रहे थे।

तदनन्तर वे विद्वान पार्षद एकान्त में जाकर महादेव जी के रूप में उन्हीं के समान ध्वज आदि चिह्न तथा आकार धारण करके खडे़ हो गये। फिर तो अप्सराएँ भी देवी पार्वती के समान सुन्दर रूप, लीला और मुख एवं वार्तालाप से युक्‍त हो उनके साथ क्रीड़ा करने लगीं। यह देख उस समय देवी पार्वती तथा वे अप्सराएँ जोर-जोर से ठहाका मारकर हँसने लगीं। इससे वहाँ चारों ओर किलकिलाहट का शब्द गूँज उठा। उस समय भगवान शंकर को अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ। उनका मन प्रसन्‍न हो गया। उस अवसर पर बाणासुर की पुत्री भामिनी उषा भी वहीं थीं। उसने देखा, बारह सूर्यों के समान तेजस्वी महादेवजी अपनी दीप्ति से देदीप्यमान हैं और नदी के तट पर देवी पार्वती के साथ मधुर क्रीड़ा में आसक्त हो रहे हैं। वे देवी का प्रिय करने की इच्छा से नाना रूप धारण करके क्रीड़ा कर रहे हैं। यह देख उषा ने देवी पार्वती के समीप ही मन में यह संकल्प किया। वह नारी धन्य है, जो पति के साथ इस प्रकार मिलकर रमण करती है। अपने इस मानसिक संकल्प को उषा ने मन-ही-मन दुहराया। उषा के उस अभिप्राय को जानकर पार्वती देवी उसे हर्ष प्रदान करती हुई धीरे से बोलीं- 'उषे! तुम भी शीघ्र ही पति के साथ इसी तरह रमण करोगी, जैसे शत्रुनाशन भगवान शंकर मेरे साथ रमण करते हैं।' देवी के ऐसा कहने पर उषा की आँखें इस चिन्ता में मुँद गयीं कि पता नहीं, यह सौभाग्‍य कब प्राप्त होगा? उस समय उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि मैं पति के साथ कब रमण करूँगी। तब हिमवानकुमारी ने हँसकर उससे यह बात कही- 'उषे! मेरी बात सुना, तुम्हें पति का संयोग कब प्राप्त होगा, यह बताती हूँ। वैशाख मास की द्वादशी तिथि को प्रदोष काल में अट्टालिका पर सोयी हुई तुम्हारे साथ जो पुरुष स्‍वपन में आकर रमण करेगा, वही तुम्हारा पति होगा।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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