हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकादशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद
जनमेजय ने कहा- महाबाहो! द्विजश्रेष्ठ! मैं पुन: जगदीश्वर श्रीकृष्ण का उत्तम माहात्म्य सुनना चाहता हूँ। उन परम बुद्धिमान महात्मा पुराणपुरुष श्रीकृष्ण के कर्मों की परम्परा का श्रवण करने से मुझे यहाँ तृप्ति नहीं हो रही है। वैशम्पायन जी बोले- महाराज जनमेयज! भगवान गोविन्द के प्रभाव का पूरा-पूरा वर्णन करना- उसका अन्त बता देना तो सैकड़ों वर्षों में भी सम्भव नहीं है। अत: उनके इस अद्भुत माहात्म्य का वर्णन सुना। महाराज कुरुनन्दन! बाणशय्या पर सोये हुए पितामह भीष्म की आज्ञा पाकर गाण्डीवधन्वा अर्जुन ने समस्त राजाओं के बीच अपने शत्रु विजयी ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर से भगवान केशव का जो माहात्म्य बताया था, उसी का वर्णन करता हूँ- सुनो। अर्जुन बोले- पहले की बात है, मैं अपने सगे-सम्बन्धियों से मिलने जुलने के लिये द्वारकापुरी में गया था। वहाँ भोज, वृष्णि और अन्धक- उत्तम वीरों से सम्मानित हो कई दिनों तक रहा। एक दिन धर्मात्मा महाबाहु मधुसूदन ने शास्त्रोक्त-विधि से एकाह सोमयोग की दीक्षा ली। भगवान श्रीकृष्ण ज्यों ही दीक्षा लेकर बैठे त्यों ही एक श्रेष्ठ ब्राह्मण ने उनके पास पहुँचकर अपना संकट निवेदन किया और कहा- 'प्रभो! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये।' ब्राह्मण ने फिर कहा- 'प्रभो! रक्षा करना आप के अधिकार की बात है, आप मेरी रक्षा कीजिये, क्योंकि जो रक्षा करता है, वह रक्षित पुरुष के धर्म का चतुर्थांश फल प्राप्त कर लेता है।' भगवान श्रीकृष्ण बोले- 'द्विजश्रेष्ठ! तुम्हें डरना नहीं चाहिये। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। तुम्हारा भला हो, ठीक-ठीक बताओ तुम्हें किससे भय है? यदि अत्यन्त दुष्कर कार्य हो तो भी उसे कहने में संकोच न करो।' ब्राह्मण ने कहा- 'महाबाहो! निष्पाप श्रीकृष्ण! जब-जब मेरे पुत्र पैदा होता है, तब-तब काल उसे हर ले जाता है। इस प्रकार मेरे तीन पुत्र हर लिये गये। अब चौथा पुत्र होने वाला है, अत: आप ही उसकी रक्षा करने योग्य हैं। जनार्दन! आज ब्राह्मणी (मेरी पत्नी) के प्रसव का समय है, अत: वहाँ रक्षा कीजिये। ये मेरी संतान जिस तरह भी जीवित बच जाय, वह उपाय कीजिये।' अर्जुन कहते हैं- तब भगवान गोविन्द ने मुझसे कहा- 'पार्थ! मैं तो यज्ञ की दीक्षा ले चुका, परंतु सभी अवस्थाओं में भी ब्राह्मण की रक्षा तो करनी ही चाहिये।' नरेश्वर! श्रीकृष्ण का ऐसा वचन सुनकर मैंने उनसे कहा- 'गोविन्द! आप मुझे इस कार्य में नियुक्त कीजिये। मैं इस ब्राह्मण की भय से रक्षा करूँगा।' नरेश्वर! मेरे ऐसा कहने पर जनार्दन मुस्कराकर मुझ से बोले- 'क्या तुम रक्षा कर लोगे?' उनकी यह बात सुनकर मैं लज्जित हो गया। तब मुझे लज्जित जानकर जनार्दन ने फिर कहा- 'कौरवश्रेष्ठ! यदि तुम रक्षा कर सको तो जाओ। महाबाहु बलराम तथा महाबली प्रद्युम्न को छोड़कर अन्य वृष्णि और अन्धकवंशी महारथी तुम्हें अगुआ बनाकर जायँ और इस ब्राह्मण की रक्षा करें।' तब मैं वृष्णि वीरों की विशाल सेना से घिरकर उस ब्राह्मण को आगे करके सेना के साथ आगे बढ़ा। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलाभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में वासुदेव का माहात्म्यविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज