हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 69 श्लोक 1-16

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनसप्तपतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

स्वर्ग में महादेव जी की परिचर्या के लिये नृत्य-गीत आदि उत्सव, नारद जी का इन्द्र को श्रीकृष्ण का पारिजात के लिये प्रार्थना विषयक संदेश सुनना और इन्द्र का अनेक कारण बताकर पारिजात को न देने का विचार प्रकट करना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर नारद मुनि ने महेन्द्र भवन में जाकर उस रात में वहीं निवास किया और पूर्वाक्त महोत्सव को भी देखा। वहाँ महात्मा आदित्यगण, सुरश्रेष्ठ वसुगण, अपने शुभ कर्मों से स्वर्ग में गये हुए विद्वान राजर्षिगण, नाग, यक्ष, सिद्ध, चारण, तपोधन ब्रह्मर्षि, सैकड़ों देवर्षि और मनु, महामना गरुड़ पक्षी, महाबली मरुद्रण तथा देवताओं के जो अन्य सैकड़ों समुदाय हैं, वे सब उस उत्सव में पधारे थे। सबके ऊपर उमा सहित अमित पराक्रमी भगवान महेश्वर अपने प्रमथगणों से घिरे हुए खड़े थे। वे सर्वभावन भगवान शिव उन मुनिश्रेष्ठ देवर्षियों से घिरे हुए थे, जिनका सहस्रों कल्पावन्तरों में भी विनाश नहीं होता है। जो अभिमान से अन्धे नहीं हुए हैं तथा जो धर्म के मार्ग पर स्थित रहने वाले हैं, वे देवेश्वरों के समान प्रभावशाली आत्मज्ञानी देवता भी उन देवर्षियों की सतत आराधना करते हैं।

भरतनन्दन! रुद्रगण, कश्यप जी के पुत्र (देवगण), भगवान स्कन्द, अग्निदेव, सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा तथा अर्चिष्मान, तुम्बुरु और वक्ताओं में श्रेष्ठ भारि (ये तीनों गन्धर्व) वहाँ महादेव जी की सेवा में उनके पास खड़े थे। ये सब-के-सब तपोबल से सम्पन्न होने के कारण देवाधिक देवों के भी नेता हैं (उनका नेतृत्व करने में समर्थ हैं)। नरेश्वर! जो नित्य-निरन्तर धर्म और तप में संलग्न, रहकर सत्पुरुषों के मार्ग का आश्रय ले चुके हैं, वे समस्त देवगण इन रुद्र आदि का अनुसरण करते हैं। राजन! जो ये मनुष्य मंगल की कामना रखकर उन देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवता भी उन शुभार्थी मनुष्यों को अभीष्ट फल देकर उनका सत्का‍र करते हैं। कुरुनन्दन! जो देवताओं और पितरों के कृत्यों में लगे रहते हैं, जिन्होंने संन्यास धर्म का अनुष्ठान किया है, जो सदा स्वाध्यायशील तथा नियमों के पालन में तत्पर रहते हैं (उन मनुष्यों को भी अभीष्ट‍ फल देकर वे देवता उनका सत्कार करते हैं)।

नरेश्वर! उस उत्सव के समय वहाँ श्रीमान गन्धर्वराज चित्ररथ पुत्र सहित प्रसन्नतापूर्वक देव सम्बन्धी वाद्य बजा रहे थे। ऊर्णायु, चित्रसेन, हाहा, हूहू, डुम्बर, तुम्बरु तथा अन्य गन्धर्व छ:[1] गुणों से युक्त गीत गा रहे थे। भारत! उर्वशी, विप्रचिति, हेमा, रम्भा, हेमदन्ता, घृताची और सहजन्या- ये अप्सराएं भी अपने नृत्य और गीत-कला का प्रदर्शन करती थीं। आत्मसंयमशील जगदधार भगवान महादेव अपनी आराधना से सम्बन्ध रखने वाले उस नृत्य-गीत आदि को प्रसन्‍नतापूर्वक ग्रहण करते-उसका आनन्द लेते थे। इन्द्र के उस बर्ताव एवं व्यवहार से संतुष्ट हो वे भगवान शिव पुन: अपने स्थान को चले गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विक्रम, स्निग्ध, मधुर, लास्य, विभक्त तथा अवबद्ध– ये गीत के छ: गुण हैं। (नीलकण्ठी से)

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