हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 74 श्लोक 1-15

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुःसप्ततितम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

रात्रि में युद्ध स्थगित करके श्रीकृष्ण का पारियात्र-पर्वत को वरदान देना, गंगा का स्मरण करना, बिल्व और गंगा पर महादेव जी का आवाहन करके उन बिल्वोदकेश्वर की पूजा और स्तुति करना, महादेव जी का उन्हें अभीष्ट वर देकर दैत्यों को मारने का आदेश देना तथा पारियात्र-पर्वत भगवान का निवास एवं उनकी प्रतिमा के पूजन की महिमा

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! भगवान श्रीकृष्ण उस रथ पर आरूढ़ हो पारियात्र पर्वत की ओर चले, यहाँ प्रभावशाली देवराज इन्द्र ऐरावत पर आरूढ़ होकर खडे़ थे। भगवान श्रीकृष्ण आते देख पर्वत श्रेष्ठ पारियात्र उड़द के ढेर या सन के बीज की राशि के समान शिथिल होकर धरती में समा गया। भगवान वासुदेव की प्रसन्नता के लिये ही उसने ऐसा किया था; क्योंकि वह महात्मा श्रीकृष्ण के प्रभाव को जानता था। नरेश्वर! उस पर्वत के इस व्यवहार से इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण की बड़ी प्रसन्नता हुई। कुरुनन्दन! तदनन्तर युद्ध के लिये जाते हुए श्रीकृष्ण के पीछे पीछे पारिजात सहित गरुड़ भी गये। गरुड़ पर बैठे हुए महाबली प्रद्युम्न और सात्यकि यह दोनों शत्रुदमन वीर भी पारिजात की रक्षा के लिये वहाँ गये। नरेश्वर! तत्पश्चात सूर्यदेव अस्त हो गये और सब ओर रात फैल गयी तो भी वहाँ इन्द्र और श्रीकृष्ण युद्ध पुनः उपस्थित हुआ। महातेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ऐरावत हाथी को गरुड़ के प्रहार से अत्यन्त आहत और असमर्थ हुआ देख देवराज इन्द्र से वह प्रकार कहा-

'महाबाहो! गरुड़ द्वारा पहले से ही आहत होकर आपका यह उत्तम हाथी ऐरावत इस समय कुछ असमर्थ हो गया है। इधर रात भी आ पहुँची; अतः अब कल सबेरे आपकी जैसी इच्छा हो, उस तरह युद्ध किया जायेगा।' तब प्रभावशाली देवराज ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)। नृपश्रेष्ठ! इसके बाद धर्मात्मा देवराज इन्द्र अपने लिये पर्वतमय आवरण बनाकर पुष्कर के निकट ठहर गये। कुरुनन्दन! जनेश्वर! तदनन्तर ब्रह्मा, महर्षि कश्यप, अदिति देवी, समस्त देवता, मुनि, साध्य, विश्वेदेव, नासत्य नाम से प्रसिद्ध अश्विनीकुमार, आदित्य, रुद्र तथा वसुगण उस स्थान पर गये। भारत! इधर पुत्र प्रद्युम्न तथा भाई सात्यकि के साथ भगवान श्रीकृष्ण उस रात में सुरम्य गिरी पारियात्र पर बड़े हर्ष के साथ रहे। नरेश्वर! वह पर्वत भगवान के प्रति भक्ति-भाव से नम्र हो जो शाण (उड़द या सन के बीज की राशि)- के बराबर हो गया था, इससे उस पर्वत पर प्रसन्न हो महातेजस्वी श्रीकृष्ण उस पर्वत को यह वर दिया- ‘महागिरे! तुम शाणपाद के नाम से विख्यात होओगे। जैसे हिमालय पर्वत का ऊपरी आधा भाग परम पवित्र होता है, उसी के समान तुम भी शुभ एवं पवित्र बने रहोगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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