हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-20

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: दशम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

वर्षा-ऋतु का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वृन्दावन में पहुँचकर वसुदेव जी के वे दोनों पुत्र, जो बहुत ही सुन्‍दर थे, बछड़ों के झुंडों को चराते हुए वहाँ सब ओर विचरने लगे। वृन्दावन में रहकर ग्वाल-बालों के साथ क्रीड़ा और यमुना स्‍नान करते हुए उन दोनों भाइयों का ग्रीष्म मास सुखपूर्वक बीत गया। तदनन्तर मन की कामना को उद्दीपित करने वाली वर्षा-ऋतु आ पहुँची। मेघों की भारी घटा घिर आयी और वर्षा करने लगी। उन मेघों के मध्य भाग इन्द्रधनुष से अंकित दिखाई देते थे। (मेघों की आड़ में छिपे हुए) सूर्य का दर्शन नहीं हो पाता था। घास इतनी बढ़ गयी कि धरती भी अदृश्य हो गयी। नूतन जल राशि को खींच लाने वाले मेघरूपी वायु ने भूतल को झाड़-बुहार और धोकर साफ कर दिया। उस समय भूमि ऐसी दिखाई देती थी, मानो उसकी युवावस्‍था आ गयी हो।

इन्द्रगोप नामक कीट नूतन वर्षा के जल से भीग रहे थे। वन प्रान्त के दावानल और धूम नष्ट हो गये थे, इससे उन वनों की बड़ी शोभा हो रही थी। बड़े-बड़े पंखों (कलापों)– से विभूषित मयूरों के नृत्य-व्यापार का समय आ पहुँचा था; अत: उनकी मदमत्त दशा की मधुर वाणी बड़ी पटुता के साथ श्रवण गोचर होती थी। नूतन वर्षा में जिनकी कमनीयता बढ़ गयी है, जो भ्रमरों को आहार प्रदान करते तथा युवावस्था में आ पहुँचे हैं, उन कदम्ब वृक्षों का आकार नये बादलों के आने से अधिक शोभा पाने लगा। कुटज के वृक्षों ने अपने फूलों से वहाँ सब ओर हास्य की छटा छिटका दी। कदम्बों ने उस वन में सुगन्ध भर दी। बादलों ने गरमी मिटा दी और जल की धारा ने वसुधा को पूर्णत: तृप्त कर दिया। जो सूर्य किरणों से संतप्त तथा दावानल से दग्ध हो गये थे, वे पर्वत मेघों के बरसाये हुए जल से अभिषिक्त हो पुन: सांस-सी लेने लगे। उठी हुई प्रचण्ड वायु पताका के समान फहरा रही थी। बड़े-बड़े़ मेघों के समुदाय प्रसादों (महलों)- के समान प्रतीत होते थे। इस प्रकार आकाश भूतल के महाराजों के नगर के समान स्वरूप धारण किये था।

कहीं कदम्ब का विकास हास की-सी छटा बिखेर रहा था। कहीं भूइफोड़ या गोबर छत्ता आभूषण के समान शोभा देता था। जगह-जगह वृक्ष खिले हुए थे। इन सबके कारण वृन्दावन अत्यन्त दीप्तिमान-सा प्रतीत होता था। इन्द्रदेव के बरसाये हुए जल से अभिषिक्त तथा वायु से विस्तार को प्राप्त हुई पृथ्वी की सोंधी सुगन्ध सूँघकर लोगों का मन क्षुब्ध (काम विकार से युक्त) हो उठता था। मतवाले भ्रमरों के गुंजारव, मेढ़कों की ध्वनि तथा मोरों की नूतन केका वाणी से वहाँ की भूमि गूंज रही थी नदियों में तीव्र गति से बड़ी–बड़ी भवरें उठ रहीं थीं। वर्षा के कारण उनका वेग महान हो गया था। वे तटवर्ती वृक्षों को बहा ले जाती थीं और क्रमश: विस्तार को प्राप्त हो रही थीं निरन्तर जल की धारा बरसने के कारण जो उड़ने के प्रयत्न में असफल हो गये थे, जिनके ऊपरी पंख शिथिल प्रयास होकर काम नहीं दे पाते थे, वे पक्षी थके मांद के समान वृक्षों की शाखाओं को छोड़ नहीं रहे थे।

सूर्यदेव नूतन जलधरों के उदरों में, जो जल के कारण सघन और फैले हुए थे तथा वर्षा के साथ गर्जना भी करते थे, डूबते-से जा रहे थे। भूमि एक तो घास से ढकी हुई थी, दूसरे जल के प्रवाह में डूब गयी थी, रास्तों का पता चलना कठिन हो गया था, मार्गों के किनारे उगे हुए वृक्षों से ही उन मार्गों को ढूँढ़ा या पाया जा सकता था। वृक्षों से सुशोभित होने वाले पर्वतों के शिखर जल के स्त्रोतों से कटकर नीचे गिर रहे थे; ऐसा जान पड़ता था, मानो वे पर्वत वज्र के प्रहार से विदीर्ण हो गये हों। मेघों की वर्षा का जल नीचे गिरकर नीची भूमि का अनुसरण करता हुआ गड्ढे में जाता था उसके भर जाने पर उससे निकलकर बाहर फैलता था और सारी वन श्रेणियों को आप्लावित कर देता था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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