हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-18

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

बाणासुर की सेना का पलायन, भगवान शंकर का अपने गणों के साथ युद्ध के लिये आगमन, भगवान श्रीकृष्ण और रुद्र का युद्ध तथा बाणासुर का युद्धभूमि में पदार्पण

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर तीन अग्‍न‍ियों के समान वे सब तीनों वीर बड़ी उतावली के साथ गरुड़ पर आरूढ़ हो शत्रुओं के साथ युद्ध करते हुए रणभूमि में डटे रहे। गरुड़ पर चढ़े हुए उन वीरों ने सिंहनाद करके बाणासुर की समस्त सेनाओं को अपनी बाण वर्षा से ढक दिया और अत्यन्त बलपूर्वक उन्हें पीड़ा देना आरम्भ किया। चक्र और हल की मार से तथा बाणों की वर्षा से पीड़ित होकर दानवों की वह दुर्जय विशाल सेना अत्यन्त कुपित हो उठी। जैसे तिनकों के बोझ में आग लग जाय और सूखे ईंधन का सहारा पाकर वह और भी बढ़ जाय उसी प्रकार श्रीकृष्ण के बाणों से जो अग्‍न‍ि प्रकट हुई, वह अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त होने लगी। वह उस युद्ध के मुहाने पर सहस्रों दानवों को दग्‍ध करती हुई ज्वाला-मालाओं से मण्डित प्रलयाग्नि के समान प्रकाशित हो रही थी। नाना प्राकर के अस्त्र-शस्त्रों से पीड़ित हो भागती हुई उस विशाल सेना के पास पहुँचकर बाणासुर उसे रोकता हुआ इस प्रकार बोला- ‘वीरो! तुम दैत्यवंश में उत्पन्न होकर भी किसलिये लघुता (कायरता) का आश्रय ले भय से व्याकुल हो इस महासमर से पलायन कर रहे हो।

कवच, खड्ग, गदा, प्रास, ढाल, तलवार और फरसे फेंक-फेंककर तुम आकाश मार्ग से क्यों भागे जा रहे हो। अपनी जाति का, अपने वीरभाव का तथा भगवान शंकर के साथ हमारा जो सम्पर्क है उसका सम्मान करते हुए तुम लोगों को यहाँ से हटना नहीं चाहिये। देखो! यह मैं युद्धभूमि में डटा हुआ हूँ’। इस प्रकार कहे गये उत्साहवर्धक वाक्य को सुनते हुए भी उसकी परवा न करके वे समस्त दानव भय से मोहित होकर भाग चले। अब उस सेना में केवल प्रमथगण शेष रह गये, उन्हीं को लेकर वह सेना वहाँ खड़ी थी। उस समय भागने से बचे-खुचे सैनिकों ने पुन: युद्ध में मन लगाया। बाणासुर के मंत्री और सखा पराक्रमी कुम्भाण्ड ने अपनी सेना में भगदड़ मची देख यह बात कही- ‘वीरों! ये राजा बाणासुर युद्ध में स्थित हैं। ये भगवान शंकर और कार्तिकेय जी भी यहाँ विराजमान हैं।

फिर तुम लोग मोहग्रस्त हो अपनी सेना को छोड़कर किसलिये भाग रहे हो। कुम्भाण्ड का ऐसा वचन सुनते हुए भी वे समस्त दानव शिरोमणि भय से व्याकुल हो प्राणों का मोह छोड़कर पलायन करने लगे। वे सब-के-सब श्रीकृष्ण की चक्राग्नि के भय से थर्रा उठे थे, अत: दसों दिशाओं की ओर भागे चले जा रहे थे। तदनन्तर अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण के द्वारा दानव सेना में भगदड़ पड़ी देख भगवान शंकर क्रोध से लाल आँखें किये स्वयं युद्ध के लिये उपस्थित हुए। वे बाणासुर की रक्षा करने के लिये उत्तम प्रभा से युक्त रथ पर आरूढ़ होकर आये थे, साथ ही कुमार स्कन्ददेव भी अग्‍न‍ि के समान तेजस्वी रथ के द्वारा वहाँ उपस्थित हुए थे। नन्दीश्वर से संयुक्त रथ पर आरूढ़ हो पराक्रमी भगवान रुद्र अपने ओष्ठ को दाँतों से दबाकर उसी ओर दौड़े, जहाँ श्रीहरि विद्यमान थे। सिंहों से जुता हुआ उनका रथ ऐसी तीव्रगति से दौड़ रहा था, मानो आकाश को पिये लेता हो। उससे बड़ी भारी घरघराहट हो रही थी। वह रथ ऐसा जान पड़ता था, मानों मेघों के आवरण से मुक्त हुआ पूर्णमासी का चन्द्रमा प्रकाशित हो रहा हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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