हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: विंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवराज इन्द्र के चले जाने पर व्रजवासियों द्वारा पूजित एवं प्रशंसित होते हुए गोवर्धनधारी श्रीमान श्रीकृष्ण ने व्रज में ही प्रवेश किया। वहाँ बड़े-बूढ़े गोप और साथ रहने वाले जाति-भाई उनका अभिनन्दन करते हुए बोले- ‘देवतुल्य पराक्रमी गोविन्द! हम धन्य हैं। तुमने अपने व्यवहार और नीति से हम लोगों पर महान अनुग्रह किया है। तुम्हारे प्रसाद से गौओं का वर्षा के भय से उद्धार हुआ और हम लोग भी महान भय से पार हो गये। गोपते! हम तुम्हारे सभी कर्म अलौकिक देख रहें हैं। श्रीकृष्ण! इस गोवर्धन पर्वत को हाथ पर धारण करने से हम यह अच्छी तरह समझ गये हैं कि तुम मनुष्य नहीं देवता हो। तुम्हारा बल महान है। बताओ, तुम रुद्रों, मरूद्गणों अथवा वसुओं में से कौन हो? ये नन्द जी[1] तुम्हारे पिता कैसे हो गये? श्रीकृष्ण! बचपन में ही तुममें ऐसा अलौकिक बल है, तुम्हारे खेल भी अलौकिक हैं तथा तुम्हारी सारी चेष्टा दिव्य है। परंतु हम लोगों में जो तुम्हारा जन्म हुआ, यही निन्दित है। (तुम्हें ऐसा निन्दित जन्म कैसे प्राप्त हुआ) इन बातों को सोचकर हमारे हृदय शंकित हो उठे हैं। तुम किसलिये गोपवेष धारण करके हम लोगों में रम रहे हो। यह कार्य तो तुम्हारे लिये गर्हित है। तुम लोक पालों के समान शक्तिशाली होकर भी यहाँ क्यों गौओं की चरवाही और रखवाली करते हो। तुम देवता हो या दानव? यक्ष हो अथवा गन्धर्व? जो हमारे बन्धु-बान्धव के रूप में उत्पन्न हो? कृष्ण! तुम जो हो सो हो, तुम्हें हमारा नमस्कार है। यदि किसी कार्य-विशेष से तुम स्वेच्छापूर्वक यहाँ रह रहे हो तो रहो। हम सब लोग तुम्हारे अनुगामी सेवक हैं और तुम्हारी शरण में आये हैं’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! गोपों की यह बात सुनकर विकसित कमलदेव के समान नेत्र वाले श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर उन समस्त समागत बन्धुओं को इस प्रकार उत्तर दिया- 'आप सब लोग मुझे जैसा भयानक पराक्रमी समझ रहे हैं, वैसा मानकर मेरा अनादर न करें। मैं तो आप लोगों का सजातीय भाई-बन्धु ही हूँ। यदि मेरे विषय में आप लोगों को यथार्थ बात अवश्य ही सुननी है तो इसके लिये उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करें, फिर आप मेरे विषय में सुनेंगे और मैं वास्तव में कैसा हूँ, यह देख और समझ सकेंगे। यदि देवोपम कान्ति से युक्त यह बालक आप लोगों का स्पृहणीय भाई-बन्धु है तो इसके विषय में विशेष छानबीन करने की क्या आवश्यकता है। यदि आप मौन ही रहें तो यह मेरे ऊपर आपका महान अनुग्रह होगा’। वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर उन गोपों ने अपना मुँह बंद कर लिया और मौन होकर वे सब-के-सब विभिन्न दिशाओं में चले गये। इधर श्रीकृष्ण ने पूर्णिमा की रात में चन्द्रमा का यौवन (अधिक कान्तिमान रूप), रमणीय वन तथा शरत्-काल की सुरम्य रजनी को देखकर मन में रमण करने की इच्छा की। पराक्रमी श्रीकृष्ण ने सूखे गोबर के चूर्ण का अंग राग-सा धारण करने वाली व्रज की गलियों में बलोन्मत सांड़ों के युद्ध का आयोजन किया। उन बलशाली वीर भगवान गोविन्द ने बल मे बढ़े-चढ़े गोपों में परस्पर मल्ल युद्ध भी करवाया और वन में घूमती हुई गौओं को ग्राह की भाँति पकड़ने की भी लीला की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हरिवंश पर्व के 55वें अध्याय में वसुदेव और नन्द को अभिन्न बताया गया है। एक ही कश्यप के दो रूप हैं वसुदेव और नन्द। अत: कहीं-कहीं नन्द के लिये भी वसुदेव नाम का प्रयोग हुआ है; इसीलिये यहाँ ‘वसुदेव’ पद का नन्द अर्थ किया गया है।
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