हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 2 श्लोक 1-18

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

कंस द्वारा देवकी के गर्भ के विनाश का प्रयत्‍न, भगवान विष्णु का पाताल लोक में स्थित ‘षड्गर्भ’ नामक दैत्यों के जीवों का आकर्षण करके उन्हें निद्रा देवी के हाथ में देना और देवकी के गर्भ में क्रमश: स्थापित करने का आदेश देकर अन्य कर्तव्य बताना तथा कार्य साधन के अन्तर बढ़ने वाली उस देवी की महिमा का उल्लेेख

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! क्रोध में भरे हुए कंस ने अपने हितैषी मन्त्रियों को आज्ञा दी कि तुम सब लोग देवकी के गर्भ का उच्छेद करने के लिये उद्यत हो जाओ। पहले गर्भ से ही आरम्भ करके वे सातों गर्भ नष्ट कर देने चाहिये। जहाँ संशय हो, उस अनर्थ का मूल से ही उच्छेद कर देना आवश्यक है। देवकी अपने भवन में गुप्त रक्षकों द्वारा सुरक्षित रहकर अपनी इच्छा के अनुसार निर्भय विचरे; परंतु जब वह गर्भवती हो जाय, उस समय उसे विशेष नियन्त्रण में रखना चाहिये। मेरी स्त्रियां रजस्वलावस्था से ही आरम्भ करके उसके गर्भधारण के मासों की गणना करती रहें। जब गर्भ के परिपक्व होकर प्रकट होने का समय आ जाय, तब से जो शेष कृत्या है, उसे हम लोग स्‍वयं ही समझ लेंगे। मेरे हितैषी सेवक रात-दिन सावधान रहकर स्त्रियों से सनाथ अन्तय:पुर में वसुदेव जी की भली-भाँति रक्षा (देखभाल) करें। स्त्रियां और हिजड़े भी उन पर कड़ी दृष्टि रखें, परंतु इसका कारण उन्हें नहीं बताना चाहिये। मनुष्यों द्वारा किया जाने वाला यह उपाय उन्हीं से साध्यक हो सकता है, परंतु मेरे जैसे शक्तिशाली पुरुष जिस उपाय से दैव को भी प्रतिहत (निष्फल) कर देते है, उसे सुनो। भलीभाँति किये हुए मन्त्र समूहों के जप अच्छी तरह उपयोग में लाये हुए औषधों के सेवन तथा अनुकूल प्रयत्न से दैव को भी अपने अनुकूल बना लिया जाता है।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार कंस देवकी के गर्भ का विनाश करने के यत्‍न में लग गया। नारद जी से सारी बातें वह सुन चुका था, इसलिये भय से प्रेरित होकर अपनी रक्षा के लिये मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करने लगा। कंस का सारा प्रयत्न जगत के लिये उत्पासत रूप ही था, उसे सुनकर अदृश्या भाव से वहाँ स्थित हुए परमपराक्रमी भगवान विष्णु ने इस प्रकार विचार किया। ‘भोजकुमार कंस देवकी के इन सात गर्भो को मार डालेगा। अथवा आठवें गर्भ में मुझे अपने स्वषरूप का आधान करना चाहिये। इस प्रकार सोचते हुए भगवान का मन सहसा पाताल की ओर गया, जहाँ वे गर्भ में शयन करने वाले षड्गर्भ नामक दानव विद्यमान थे। उनके शरीर बल-विक्रम से सम्पन्न थे। वे अमृतभोजी देवताओं के समान तेजस्वी थे और युद्ध में देवताओं के तुल्य पराक्रम प्रकट करते थे। वे सब-के-सब कालनेमि नामक दैत्यों के पुत्र थे। पहले की बात है, वे दैत्यक अपने पिता के भी पिता हिरण्यकशिपु को छोड़कर लोक पितामह ब्रह्मा जी की उपासना करने लगे। सिर पर जटा का भार धारण किये वे तीव्र तपस्या‍ में लग गये। तब ब्रह्मा जी उन ‘षड्गर्भ’ नामक दैत्यों पर प्रसन्न हो गये और उन्हें वर देने लगे। ब्रह्मा जी ने कहा- दानव कुल में सिं‍ह के समान पराक्रमी वीरों! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत संतुष्ट हूँ। तुममें से जिसे जिस वस्तु की इच्छा हो, उसे बताओ; मैं वह सब पूर्ण करूँगा। उन सब दैत्यों का प्रयोजन या मनोरथ एक-सा ही था। वे ब्रह्मा जी से बोले- भगवन! यदि आप हम पर प्रसन्न हो तो हमें यह श्रेष्ठ वर दीजिये। भगवन हम देवताओं तथा बड़े-बड़े नागों से भी अवध्य हों। जो शाप द्वारा प्रहार करने वाले हैं, उन महर्षियों से भी हमारा सदा कल्याण ही हो। भगवन यदि आप हमें वर दे रहे हैं तो यक्ष, गन्धर्वपति, सिद्धचारण तथा मनुष्यों द्वारा हमारा वध न हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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