हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-19

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रयोदश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

बलराम द्वारा धेनुकासुर का वध और भय रहित तालवन में गौओं तथा गोपों का विचरण

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब श्रीकृष्ण ने यमुना जी के कुण्‍ड में रहने वाले नागराज कालिय का दमन कर दिया, उसके बाद से वे दोनों भाई बलराम और श्रीकृष्ण प्राय: उसी प्रदेश में साथ-साथ विचरा करते थे। एक दिन वसुदेव के वे दोनों पुत्र गोधन के साथ विचरते हुए परमरमणीय गोवर्धन पर्वत के निकट आये। वहाँ उन दोनों वीरों ने देखा- गोवर्धन से उत्तर दिशा में यमुना के तट पर आश्रय लेकर एक विशाल एवं रमणीय तालवान शोभा पा रहा है। ताड़ के पत्तों से विस्तार को प्राप्त हुए उस रमणीय तालवन में क्रीड़ा परायण हो वे दोनों भाई दो उद्दण्‍ड बछड़ों के समान बड़ी प्रसन्नता के साथ विचरने लगे। विशाल प्रदेश सदा ही स्निग्‍ध (चिकना) रहता था, वहाँ ढेले और पत्थरों के रोड़े नहीं थे। वहाँ के स्थलों पर प्राय: दर्भ (कुश, दूर्वा आदि) फैले हुए थे। उस स्थान की मिट्टी काले रंग की थी। वहाँ जो ताड़ के वृक्ष थे, उनके तने मोटे थे। वे सभी वृक्ष बहुत ऊँचे थे। उनके पर्वस्थान (गांठ) काले रंग के थे और उनकी शाखाएं फलों से भरी-पूरी थीं। उन तालवृक्षों से उस स्थान की ऐसी शोभा हो रही थी, मानो वहाँ अपनी सूँड़ ऊपर को उठाये बहुत-से हाथी खड़े हों। वहाँ वक्‍ताओं में श्रेष्ठ दामोदर (श्रीकृष्ण) ने संकर्षण से कहा- 'आर्य! यहाँ की वनस्थली तो इन पके हुए तालफलों की सुगन्ध से महक उठी है। ये काले और सुगन्धित तालफल अवश्य ही स्वादिष्ट और सरस होंगे।

हम दोनों भाई साथ-साथ रहकर शीघ्रतापूर्वक कदम उठाते हुए इन फलों को यहाँ गिरावें। यदि इनकी गन्ध ऐसी है, जो अपनी मधुरता से हमारी घ्राणेन्द्रियों को तृप्त किये देती है तो मेरा विश्वास है कि इन फलों को अमृततुल्‍य रस से युक्‍त होना चाहिये।' दामोदर की यह बात सुनकर रोहिणीनन्दन बलराम हँसते हुए-से पके हुए तालफलों को गिराने के उद्देश्य से उन वृक्षों को हिलाने लगे। उस तालवन का सेवन मनुष्यों के लिये असम्भव हो गया था। उस वन को इस पार से उस पार तक सकुशल लांघ जाना अत्यन्त कठिन था। यद्यपि वह सारभूत स्थान था, तथापि राक्षस के घर की भाँति मनुष्यों से शून्य दिखायी देता था। गर्दभरूपधारी धेनुक नामक दारुण दैत्य विशाल गदहों की टोली से घिरा हुआ उस वन में रहता था। वह गदहा असुर उस तालवन की सब ओर से रक्षा करता था। उसकी बुद्धि बहुत ही खोटी थी। वह मनुष्यों, पक्षियों तथा हिंसक जन्तुओं को भी आतंकित किये रहता था। उन तालफलों के गिराने से जो धमाके की आवाज होती थी, उसे सुनकर धेनुकासुर सहन न कर सका। जैसे ताल ठोंकने की आवाज सुनकर हाथी कुपित हो उठता है, उसी प्रकार वह भी अत्यन्त क्रोध में भर गया। वह उस धमाके के शब्‍द का अनुसरण करता हुआ बड़े रोष के साथ चला। घमंड में भरकर अपने अयाल और सिर को घुमाता आ रहा था। उसकी आंखे स्तब्‍ध हो गयी थी।

वह बड़ी पटुता के साथ रेंक रहा था और अपनी टापों से पृथ्‍वी को विदीर्ण-सा किये देता था। उसकी पूँछ घूम रही थी, रोंगटे खड़े हो गये थे, वह मुँह बाये हुए काल के समान जान पड़ता था। उसने आते ही रोहिणीनन्दन बलराम को वहाँ उपस्थित देखा। ध्‍वजा की सी आकृति वाले अविनाशी रोहिणीकुमार को ताड़ों के नीचे खड़ा देख दांतों से ही शस्त्र का काम लेने वाले उस दुष्ट गदहे ने उन्हें दांत से काट लिया। फिर दूसरी ओर मुँह करके उस दैत्यराज धेनुक ने बिना हथियार लिये खड़े हुए रोहिणीकुमार की छाती में अपने पिछले दो पैरों द्वारा चोट पहुँचायी तब बलराम जी ने उस गर्दभरूपधारी दैत्य के उन्हीं दोनों पैरों को पकड़ लिया तथा उसके मुँह और कंधों को घुमाते हुए उसे ताड़वृक्ष के ऊपर दे मारा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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