हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 91 श्लोक 1-23

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकनवतितम अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद

वज्रनाभ की तपस्‍या और वर प्राप्ति, उसका त्रिभुवन-विजय के लिये उद्योग इन्‍द्र की श्रीकृष्‍ण से वार्ता, भद्रनामा नट को मुनियों का वरदान, इन्‍द्र का हंसों को आवश्‍यक कर्तव्‍य बताकर वज्रनाभपुर में भेजना

जनमेजय ने कहा- धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ महामुने! भानुमती का अपहरण, श्रीकृष्‍ण की विजय, देवलोक से छालिक्‍य गान्‍धर्व का आनयन और अत्‍यन्‍त तेजस्‍वी वृष्णिवंशियों की समुद्र में होने वाली दिव्‍य क्रीड़ा- इन सबका अत्‍यन्‍त आश्‍चर्ययुक्‍त वर्णन मैंने सुना है। मुने! निकुम्भ-वध का वर्णन करते समय आपने वज्रनाभ के वध की भी चर्चा की है। आपकी कृपा से उसे सुनने के लिये मेरे मन में कौतुहल हो रहा है। वैशम्पायन जी ने कहा- नरेश्‍वर! भरतनन्‍दन! मैं प्रसन्‍नतापूर्वक तुम्हें वज्रनाभ के वध का वृत्तान्‍त बताऊँगा। साथ ही प्रद्युम्न और साम्ब की विजय का भी वर्णन करूँगा। नरेन्‍द्र! वज्रनाभ नाम से विख्‍यात महान असुर निश्‍चय ही युद्ध में विजय पाने वाला था। एक समय उसने मेरूपर्वत के शिखर पर बड़ी भारी तपस्‍या की। उसकी तपस्‍या से महातेजस्‍वी लोक पितामह ब्रह्मा जी बहुत संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने प्रसन्‍न होकर उससे इच्‍छानुसार वर मांगने के लिये कहा। तब उस श्रेष्‍ठ दानव ने देवताओं से अवध्‍य होने का वर मांगा; साथ ही सम्पूर्ण रत्‍नों के बने हुए सुन्‍दर वज्रपुर नामक नगर की भी याचना की। भारत! उस नगर में स्वच्‍छन्दतापूर्वक वायु का भी प्रवेश नहीं होता था। नरेश्‍वर! बिना चिन्‍तन किये ही वहाँ सम्पूर्ण मनोवांछित भोगों की प्राप्ति होती रहती थी।

जनमेजय! उस अप्रमेय नगर के चारों ओर शाखा-नगरों के मुख्‍य-मुख्‍य सैकड़ों उद्यान शोभा पाते थे, जो चहार दीवारियों से घिरे हुए थे। भारत! उसको मिले हुए वरदान से ही वह नगर उस रूप में प्रतिष्ठित हुआ था। महान असुर वज्रनाभ उस वज्र नगर में निवास करता था। राजन! वर पाये हुए वज्रनाभ को सब ओर से घेरकर करोड़ों देवद्रोही असुर हृष्ट, पुष्‍ट और आनन्दित हो वज्रपुर में तथा उसके शाखा नगरों के मुख्‍य–मुख्‍य घिरे हुए उद्यानों में निवास करते थे। अपने को तथा अपने नगर को प्राप्‍त हुए वरदान से घमंड में भरा हुआ दुष्‍टात्‍मा वज्रनाभ सम्पूर्ण जगत को कष्‍ट देने के लिये उद्यत हो गया। प्रजानाथ! वह देवलोक में जाकर महेन्‍द्र से बोला- ‘पाकशासन! मैं तीनों लोकों पर शासन करना चाहता हूँ। देवगणेश्‍वर! या तो मेरे लिये देवलोक खाली कर दो अथवा मुझे युद्ध प्रदान करो; क्‍योंकि सम्पूर्ण जगत पर सभी महामनस्‍वी कश्‍यपपुत्रों का समान अधिकार है।' कुरुनन्‍दन! तब सुरश्रेष्‍ठ महेश्‍वर इन्‍द्र ने बृहस्‍पति जी के साथ सलाह करके वज्रनाभ से कहा-

'सौम्य! हम सबके पिता कश्‍यपमुनि यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं। उनका वह यज्ञ पूर्ण हो जाने पर वे जैसा उचित समझेंगे, वैसा हम लोगों के लिये निर्णय देंगे। तब उस दानव ने अपने पिता कश्‍यप के पास जाकर देवराज इन्‍द्र ने जो कुछ कहा था, सब कह सुनाया। उसकी बात सुनकर कश्‍यप जी ने कहा- 'वत्‍स! यज्ञ समाप्‍त हो जाने पर जैसा उचित होगा, वैसा करूँगा। तब तक तुम वज्रपुर में चलकर सावधान होकर रहो।' पिता के ऐसा कहने पर वज्रनाभ अपने ही नगर को चला गया। उधर महेन्‍द्र देव भी सुन्‍दर द्वार से सुशोभित होने वाली द्वारकापुरी को गये। वहाँ जाकर अदृश्‍य होकर ही इन्‍द्रदेव ने भगवान श्रीकृष्‍ण से वज्रनाभ का सारा वृत्‍तान्‍त कह सुनाया। तब श्रीकृष्‍ण उनसे बोले- देव! वासव! मेरे पिताजी का अश्‍वमेध नामक महान यज्ञ उपस्थित है। उसके पूर्ण हो जाने पर मैं वज्रनाभ को अवश्‍य मार गिराऊँगा। सत्‍पुरुषों के आश्रयदाता प्रभो! उसके नगर में प्रवेश करने का क्‍या उपाय है- यह हम दोनों सोचें; क्‍योंकि वज्रनाभ की इच्‍छा के बिना वहाँ वायु का भी प्रवेश नहीं हो सकता।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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