हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुरशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुरुश्रेष्ठ! जब सूर्योदय हुए दो ही घड़ी बीती थी और लोगों के नेत्र निर्मल हो गये थे, उस समय बलभद्र, श्रीकृष्ण और सात्यकि- ये तीनों गरुड़ पर सवार हुए। उन सबने अपने हाथों में गोधा चर्म के बने हुए दस्ताने बांध रखे थे और कवच धारण करके युद्ध के लिये इच्छुक थे। उन्होंने सबसे पहले, जिसे रुद्रदेव ने वर दिया था और जो उन्हीं के वचन से पुण्यमयी हो गयी थी, उस आवर्ता नाम वाली गंगा में स्नान करके सुरश्रेष्ठ बिल्वोदकेश्वर देव को नमस्कार किया था (इसके बाद वे युद्ध की व्यवस्था में लगे थे। सबको मान देने वाले, सत्पुरुषों के आश्रयभूत श्रीकृष्ण ने सबसे आगे प्रद्युम्न को सेना की रक्षा के लिये उसके ऊपरी भाग आकाश में स्थापित किया। यज्ञ मण्डप की रक्षा के लिये पाण्डवों को नियुक्त किया तथा शेष सेना को गुफा के द्वार पर नियुक्त करके भगवान श्रीहरि ने जयन्त और प्रवर को स्मरण किया। भरतनन्दन! वे दोनों वहाँ आ पहुँचे और स्वयं ही आकर उन्होंने भगवान का दर्शन किया तत्पश्चात भगवान् श्रीकृष्ण ने उन दोनों को प्रद्युम्न की भाँति आकाश में ही (ऊपर की ओर से सेना की रक्षा के लिये) नियुक्त कर दिया। तदनन्तर श्रीकृष्ण के कहने से युद्ध का डंका बजाया गया। शंख, मुरज तथा अन्य बाजे भी बज उठे। साम्ब और गद ने यादव-सेना का मकरव्यूह बनाया। सारण, उद्धव, भोज, वैतरण, धर्मात्मा अनाधृष्टि, पृथु, विपृथु, कृतवर्मा, दंष्ट्र तथा शत्रुमर्दन निचक्षु- ये सब उस व्यूह के अग्रभाग में खड़े थे। धर्मात्मा सनतकुमार और चारूदेष्ण- ये दोनों अनिरुद्ध के साथ रहकर सेना के पृष्ठभाग की रक्षा करने लगे। अपने कुल की वृद्धि करने वाले नरेश! रथों, घोड़ों, मनुष्यों और हाथियों से भरी हुई शेष यादव सेना व्यूह के मध्य भाग में खड़ी थी। तदनन्तर षट्पुर से भी रणदुर्मद दानव निकले। उनमें से कुछ मेघ के समान गम्भीर शब्द करने वाले गदहों और हाथियों पर आरूढ़ थे। भरतनन्दन! कितने ही दैत्य वेगशाली मगरों, शिशुमारों (सूँसों), भैंसों, गेंडों, ऊँटों और कछुओं पर भी सवार थे। कितनों के पास इन्हीं वाहनों से जुते हुए रथ थे। उन रथों से सम्पन्न हुए। वे दैत्य अपने हाथों में नाना प्रकार के आयुध लिये हुए थे। वे किरीट, मुकुट या पगड़ी तथा अंगदों (भुजबंदों)- से अलंकृत थे। उनके साथ बारम्बार नान प्रकार के बाजे बज रहे थे। उन बाजों की आवाज में रथ के नेमियों (पहियों)- की घर्घराहट भी मिली हुई थी। वहाँ जोर-जोर से शंख बजाये जाते थे, जो महान मेघों की गर्जना के समान गंभीर ध्वनि प्रकट करते थे। जनेश्वर! युद्ध के लिये उद्यत हुई उन असुर सेनाओं में सबसे आगे निकुम्भ निकला, मानो देवताओं के आगे इन्द्र चल रहे हों। वे उत्कट बलशाली दानव नाना प्रकार से सिंहनाद करते, बारम्बार गर्जते तथा आकाश और पृथ्वी को गुँजाते हुए बढ़ने लगे। जनमेजय! राजाओं की सेना भी असुरों की सहायता के लिये निश्चय करके चेदिराज शिशुपाल के नेतृत्व में युद्ध के लिये तैयार हो गयी। पुरुषसिंह! दुर्योधन आदि सौ भाई चेदिराज शिशुपाल के छोटे भाईयों से आगे चल रहे थे। ये सब-के-सब गन्धर्वनगराकार रथों द्वारा युद्ध के लिये खड़े थे। वीर! राजा द्रुपद के रथ बड़े कठोर (दु:सह) घरघराहट का शब्द करते थे। रुक्मी और आह्वृति- ये दोनों युद्ध के समान अपने सुन्दर धनुष हिलाने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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