हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 93 श्लोक 1-22

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिनवतितम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

नटवेशधारी यादवों का सुपुर और वज्रपुर में सफल अभिनय करके दानवों को रिझाकर उनसे उपहार पाना तथा प्रद्युम्न का प्रभावती के घर में प्रवेश

वैशम्पायन जी कहते हैं- नरेश्‍वर! तदनन्‍तर वज्रनाभ ने सुपुरवासी असुरों को आज्ञा दी कि इन नटों के लिये उत्‍तम गृह प्रदान करो। इन सबका आतिथ्‍य-सत्‍कार करो। इन्‍हें उपहार में बहुत-से रत्‍न तथा सुन्‍दर एवं विचित्र वस्त्र प्रदान करो। साथ ही इन्‍हें साथ पहुँचाने के लिये ऐसी सामग्री भेंट करो, जो मनुष्‍य मात्र के मन को प्रसन्‍न करने वाली हो। स्‍वामी की आज्ञा पाकर उन असुरों ने सब कुछ वैसा ही किया। पहले जिसके विषय में सुना गया था, वही नट आया है; इस भावना ने सबके मन में नयी उत्‍कण्‍ठा उत्‍पन्‍न कर दी थी। दैत्‍यों ने भद्र नामक नट को बड़ी प्रसन्‍नता के साथ उत्‍तम सत्‍कार प्रदान किया। उन्‍होंने वेश-धारण के लिये उसे बहुत-से रत्‍न दिये। तदनन्‍तर वर प्राप्‍त किये हुए उस नट ने वहाँ सुपुर में नृत्‍य किया और पुरवासियों के मन में महान हर्ष भर दिया। उसने रामायण नामक महाकाव्‍य की कथा वस्‍तु को लेकर वहाँ एक नाटक किया। उसमें यह दिखाया गया कि राक्षसराज रावण के वध की इच्‍छा से अप्रमेय स्‍वरूप भगवान विष्‍णु का भूतल पर अवतार हुआ। अनघ! लोमपाद ने महामुनि ऋष्‍यश्रृंग को गणिकाओं के साथ अपने यहाँ बुलवाया; फिर महाराज दशरथ ने ऋष्‍यश्रृंग के साथ उनकी पत्‍नी शान्‍ता को भी अपने यहाँ निमन्त्रित किया। भरतनन्‍दन! राम, लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भरत, ऋष्‍यश्रृंग तथा शान्‍ता का वेश उन्‍हीं के जैसे रूप वाले नटों ने धारण किया था। राजन! जो राम के समय में जीवित थे, वे बूढ़े दानव भी उन्‍हें देखकर आश्चर्य चकित हो गये और कहने लगे, इनका रूप तो ठीक उन्‍हीं व्‍यक्तियों के तुल्‍य है।

उनके संस्‍कार (वेश-धारण), अभिनय, प्रस्‍तावों (क्रिया-प्रसंगों) का धारण तथा प्रवेश (पात्रों का प्रथम दर्शन) देखकर सभी दानव बड़े विस्‍मय में पड़ गये थे। उस नाटक में अनुरक्‍त हुए वे असुरगण नाट्य विषयों में बारम्‍बार उठ-उठकर बड़ी प्रसन्‍नता के साथ आश्‍चर्ययुक्‍त कोलाहल करते और संतुष्‍ट हो नटों को वस्‍त्र, गले का भूषण, कंकण, मनोहर हेमवैदूर्यभूषित हार देते थे। लोगों के इस प्रकार पृथक-पृथक वस्‍तुओं की भेंट देने पर वे नट बहुत संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने उनके गोत्रों और पूर्वजों का उल्‍लेख करके उन असुरों और ऋषि-मुनियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। नरेन्‍द्र! उस समय शाखा-नगर निवासी असुरों ने वज्रनाभ के पास उस दिव्‍य रूपधारी नट के पधारने का शुभ समाचार सुन लिया था। अत: उसने अत्‍यन्‍त हर्षित होकर यह संदेश भेजा कि उस नट को वज्रपुर में ले आया जाय। दानवराज का वह आदेश सुनकर शाखानगर निवासी असुर नट वेशधारी यादवों को रमणीय वज्रपुर में ले गये। दैत्‍यराज ने उन्‍हें ठहरने के लिये विश्‍वकर्मा का बनाया हुआ सुन्‍दर भवन प्रदान किया और जिन-जिन वस्‍तुओं की इच्‍छा या आवश्‍यकता होती है, उन सबको उन्‍होंने सौ गुना अधिक करके दे दिया। तदनन्‍तर महान असुर वज्रनाभ ने महाकाल नामक रुद्रदेव का उत्‍सव आरम्‍भ किया। उसमें उसने बड़े हर्ष में भरकर रमणीय चमूवाट (सैनिकों के मनोरंजन का स्‍थान) बनवाया। तत्‍पश्‍चात जब वे नट पूर्ण विश्राम कर चुके, तब महाबली वज्रनाभ ने उन्‍हें बहुत-से रत्‍न देकर नाट्य कला का प्रदर्शन करने के लिये आज्ञा दी। नरेश्‍वर! अन्‍त:पुर की स्त्रियों को पर्दे की ओट में जहाँ से वे अपने नेत्रों द्वारा सब कुछ देख सकती थी, बिठाकर मनस्‍वी वज्रनाभ स्‍वयं भी जाति-भाइयों के साथ उन नटों का अभिनय देखने के लिये बैठा। भयंकर कर्म करने वाले वे यादवकुमार भी उपयुक्‍त श्रृंगार करके नटवेश धारण किये नृत्‍य का उपक्रम करने लगे। फिर तो घन (झांझ और करताल आदि), सुषिर (मुरली आदि), मुरज (मृदंग), आनक (ढोल या नगाड़ा) तथा वीणा के स्‍वरों से मिश्रित दूसरे-दूसरे बाजे उन नटों द्वारा बजाये जाने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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