हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 95 श्लोक 1-14

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: पंचनवतितम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

प्रद्युम्न का प्रभावती से वर्षा का वर्णन करते हुए उसे अपने कुल का परिचय देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पूर्ण चन्‍द्रमा के समान मनोहर मुख वाले प्रद्युम्न ने भाद्रपद मास में आकाश को मेघों की घटा से आच्‍छन्‍न हुआ देख उस समय मनोहर एवं विशाल नेत्रों वाली प्रभावती से कहा- 'मनोहर एवं परस्‍पर सटी हुई जांघों वाली वरांगी! सुन्‍दरि! इस समय सुन्‍दर बिम्‍ब वाला चन्‍द्रमा, जो तुम्‍हारे मुख के समान मनोरम जान पड़ता था, नहीं दिखायी देता है। तुम्‍हारे इन केश पाशों के समान काले बादलों ने उसे छिपा दिया है। सुन्‍दर भौंहों वाली सुन्‍दरि! यह जो मेघों के अंक में विद्युत दिखायी देती है, वह सोने के मनोहर आभूषणों से भूषित हुई तुम-जैसी ही प्रतीत होती है और ये गरजते हुए मेघ तुम्‍हारे मौक्तिक हारों के समान जल की स्‍वच्‍छ धाराएं गिरा रहे हैं। सुभ्रु! आकाश में जहाँ बादल घिरे हुए हैं, उन प्रदेशों में बगुलों की पंक्तियां तुम्‍हारे दांतों की श्रेणियों के समान सुशोभित हो रही हैं। सरिताओं के जलों में कमलों के समूह डूब गये हैं और वे जल महान वेग से व्‍याप्‍त हैं; अत: उनकी विशेष शोभा नहीं हो रही है। ये बादल वायु के अधीन हो रहे हैं। बगुलों की पंक्तियां उनके निर्मल एवं मनोहर दांतों के समान शोभा पाती हैं। ये वनों में सफेद दांत वाले हाथियों के समान एक-दूसरे से टक्‍कर लेने के लिये उद्यत हैं। सुन्‍दर अंगों वाली प्राणवल्‍लभे! वह इन्‍द्र-धनुष देखो, जो तुम्‍हारे मुखमण्‍डल में स्थित नेत्रों के कोणभाग-सा तिरंगा बना हुआ है। वह आकाश और बादलों की शोभा बढ़ाता हुआ कामीजनों को महान हर्ष प्रदान करता है। अपनी बोली बोलते हुए मोर बादलों को गरजते देख अत्‍यन्‍त हर्ष में भरकर नृत्‍य-कला के प्रति आदरभाव रखते हुए पंखों के भारों को ऊपर उठाकर आस-पास ही नृत्‍य कर रहे हैं; इस अवस्‍था में ये बहुत ही प्रिय एवं मनोहर प्रतीत होते हैं। तुम इनकी ओर दृष्टिपात करो।

सुश्रोणि! चन्‍द्रमा के समान श्‍वेतवर्ण वाली अट्टालिकाओं पर बैठे हुए दूसरे मयूर-समुदाय वहाँ दो घड़ी के लिये अत्‍यन्‍त मनोहर शोभा प्रदान करके छज्‍जों पर उड़ते हुए बड़ी शोभा पा रहे हैं। मनोहर देह धारण करने वाले मोर वृक्षों की सर्वोच्‍च शिखाओं पर बैठे हैं। उनकी पाँखें भीग गयी हैं और वे दो घड़ी के लिये उन वृक्षों के सिरों पर चूड़ामणि की-सी शोभा की सृष्टि करके नयी-नयी घासों से ढकी हुई भूमि पर जा रहे हैं। उनके मन में यह शंका है कि ये घासें भूमि से भिन्‍न हैं या अभिन्‍न। जल की धाराओं के बीच से निकलकर सुखदायिनी हवा चल रही है, जो चन्‍दनपंक के समान शीतल प्रतीत होती है। यह कदम्‍ब, सर्ज और अर्जुन के फूलों की सुगन्‍ध लिये आ रही है। वह सुगन्‍ध कामोद्दीपन में सहायक हो रही है। मनोहर अंगों वाली प्रिये! यदि इस समय रति के श्रम से प्रकट होने वाले पसीनों को मिटाने और नूतन जल के भार को खींच लाने में सहायक यह वायु न चलती होती तो यह वर्षाकाल मुझे अधिक प्‍यारा न लगता। जब इस प्रकार प्रियजनों के समागम प्राप्‍त हों, उस अवसर पर रतिक्रीड़ा के अन्‍त में जो रतिश्रमजनित स्‍वेदबिन्‍दुओं को हर लेने वाली सुगन्धित वायु अपने पास आती है, उससे बढ़कर सुख इस संसार में दूसरा कौन है? सुन्‍दर अंग वाली प्राणवल्‍लभे! बड़ी-बड़ी नदियों के तटों को जल में निमग्न देख सारस और क्रौंचों सहित हंस मानसरोवर में निवास के लिये लुब्‍ध हो बड़े हर्ष के साथ वहाँ तक जाने का परिश्रम स्‍वीकार करते हैं। विशाल एवं मनोहर नेत्र वाली प्रिये! हंसों, सारसों और चक्रवाकों के चले जाने पर नदी और तालाब श्रीहीन से प्रतीत होते हैं। उनके बिना न तो नदियां अच्‍छी लगती हैं और न सरोवर ही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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