हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! जिसका पुण्य क्षीण हो गया हो, उस ग्रह के समान भूमि पर गिरे हुए पति को देखकर राजा कंस की पत्नियाँ उसके मृतक शरीर को सब ओर से घेरकर बैठ गयीं। जो कभी पृथ्वी के स्वामी और संरक्षक थे, वे ही पतिदेव आयु समाप्त होने पर भूमिमयी शैय्या पर सो रह हैं, यह देख राजा कंस की रानियाँ उसके लिये उसी तरह शोक करने लगीं, जैसे हरिणियाँ यूथपति हरिण के लिये शोकमग्न हो जाती हैं। (वे विलाप करती हुई कहने लगी) ‘हाय! महाबाहु वीर! आपको वीरव्रत प्रिय था। आपके मारे जाने पर हम सब वीर-पत्नियाँ मारी गयी। हमारी आशाओं की हत्या हो गयी। हमारे बन्धु-बान्धव भी (अनाथ होने के कारण) मारे ही गये! राजशिरोमणे! आपकी मृत्यु सम्बन्धिनी इस अन्तिम अवस्था को देखती हुई हम सब (आपकी पत्नियाँ) अपने बान्धवों सहित दीनतापूर्ण विलाप कर रही हैं। प्रभो! आप हमारे महाबली प्राणनाथ थे, आपके मारे जाने से हमारी तो जड़ कट गयी। हाय! आपने हमें त्याग दिया! हा प्राणाधार! हम मन में रति संसर्ग की लालसा रखकर भी (मानावस्था में) प्रणय कोप से युक्त हो जब पृथ्वी पर लताओं की भाँति लोटकर विपरीत चेष्टा करने लगतीं, उस समय आप हमें प्रेमपूर्वक मनाकर शैय्याओं पर सुलातें थे। अब हमें कौन इस तरह उठाकर सेजों तक ले जायेगा? सौम्य! जिससे मनोरम नि:श्वास वायु निकला करती थी, आपके उस कांतिमान मुख को सूर्य जलरहित (तालाब में उगे हुए) कमल की भाँति अपनी दु:सह किरणों से दग्ध कर रह हैं। यह दुरवस्था आपके योग्य नहीं है। ये आपके कुण्डल रहित सूने कान, जिन्हें सदा ही कुण्डल धारण करना प्रिय रहा है, इस समय कण्ठ में विलीन होकर शोभा नहीं पा रहे हैं। वीर! सम्पूर्ण रत्नों से विभूषित आपका वह मुकुट कहाँ है, जो आपके मस्तक पर सूर्य की प्रभा के समान अतिशय शोभा का आधान करता था। प्राणनाथ! आपकी ये रानियाँ जो अन्त:पुर की शोभा बढ़ाती थीं, आपके लोकान्तर में चले जाने से अब दीन और अनाथ होकर के निर्वाह करेंगी। नाथ! सुना था, साध्वी स्त्रियाँ न तो प्रिय भोगों से कभी वंचित होती हैं और न उनके प्रति उनका परित्याग ही करत हैं; पंरतु आप तो हमें छोड़कर चले जा रहे हैं (हाय! अब हम कैसे रहेंगी)। अहो! काल महान बल से सम्पन्न है, जो अपनी उलट-फेर क्रिया द्वारा शत्रुओं के लिये काल के समान आपको भी शीघ्रतापूर्वक यहाँ से लिये काल के समान आपको भी शीघ्रतापूर्वक यहाँ से लिये जा रहा है। नाथ! आपने हमें सदा सुखों में ही रखकर पाला-पोसा और बड़ी किया है। हम दु:ख भोगने के योग्य नहीं हैं; किंतु आज आपसे बिछुड़कर विधवा होकर दयनीय दशा को पहुँच गयी हैं। अब हम कैसे यहाँ रह सकेंगी? जिनके मन में सदाचार के पालन का लोभ हो, उन साध्वी स्त्रियों के लिये एकमात्र पति ही परम गति है- सबसे बड़ा सहारा है, किंतु महाबली काल ने हमारे उस सहारे को काट डाला। हम वैधव्य से अभिभूत हो गयी हैं। हमारा मन शोक से संतप्त हो उठा है। हम विपत्ति के उस गहरे कुण्ड में डूब गयी हैं, जहाँ केवल रोना-ही-रोना रह जाता है। अब हम आपके बिना कहाँ जाएगी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज