हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-21

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: चतुर्विंश अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

केशी के अत्‍याचार और श्रीकृष्ण द्वारा उसका वध

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अन्धक की बातें सुनकर कंस की ऑंखें क्रोध से लाल हो गयी। वह उनसे कुछ नहीं बोला और रोषपूर्वक उठकर अपने महल में चला गया। फिर वे सब यादव, जो वहाँ की सारी बातें विस्‍तारपूर्वक सुन चुके थे, निराश होकर अपने-अपने घर को लौट गये। वे मार्ग में यह चर्चा कर रहे थे कि कंस का मस्तिष्क खराब हो गया है। अक्रूर के मन में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की लालसा जाग उठी थी, अत: वे भी कंस की आज्ञा के अनुसार उठे और मन के समान शीघ्रगामी श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो वहाँ से चल दिये। उधर श्रीकृष्ण को भी अपने अंगों में ही कुछ ऐसे शुभ लक्षण दिखायी देते थे, जो पिता-जैसे बान्धव से भेंट होने की सूचना दे रहे थे। (अक्रूर को भेजने से) पहले ही मथुरा के राजा उग्रसेनकुमार कंस ने केशी के पास दूत भेजा और कहलाया कि तुम श्रीकृष्ण का वध कर डालो। दूत की बात सुनकर मनुष्यों को क्‍लेश प्रदान करने वाला दुर्जय दैत्‍य केशी वृन्दावन में जाकर गोपों को सताने लगा। केशी घोड़े के रूप में रहने वाला दुर्दान्त दैत्‍य था और मनुष्य का मांस खाता था। उस दुष्ट पराक्रमी असुर ने कुपित होकर वहाँ महान संहार आरम्भ कर दिया।

वह ग्‍वालों सहित गौओं को मार डालता और गौओं का मांस खाया करता था। मदमत्त केशी स्‍वच्‍छन्द विचरने वाला और उच्छृंखल था। अश्वरूपधारी दुष्टात्‍मा दानव केशी जहाँ रहता था, वह वन मनुष्यों के मांस और हड्डियों से व्‍याप्‍त होकर श्मशान भूमि के समान प्रतीत होता था। वह टापों से पृथ्‍वी को विदीर्ण कर देता और वेग से वृक्षों को भी तोड़ डालता था, हींसते या हिनहिनाते समय प्रचण्‍ड वायु के कोलाहल से होड़ लगाता था और उछलकर आकाश को भी लांघ जाता था। वह वन में विचरने वाला दुष्ट अश्व बहुत बड़ा और मतवाला था। समस्‍त गोपों को मार डालने की इच्‍छा वाले उस पापाचारी अश्वरूपधारी दैत्‍य ने वह सारा वन मनुष्यों से सूना कर दिया था। उस दुराचारी ने वह विशाल वन दूषित कर डाला था। वन से ही जीवन-निर्वाह करने वाले मनुष्य और गोधन भी कभी उस वन का सेवन नहीं करते थे। मद के कारण वह सदाचार से भ्रष्ट हो चुका था और अधिकतर मनुष्यों के ही मांस खाया करता था।

उसके निवास-स्‍थान में होकर जो रास्‍ता जाता था, उसे उसने अगम्य बना दिया था। एक समय मनुष्यों के शब्‍द का अनुसरण करता हुआ केशी क्रोध में भरकर वृन्दावन के भीतर गोपों की बस्‍ती में गया, उस समय उस पर काल सवार था। उसे देखते ही गोप और गोपांगनाएं शिशुओं को साथ लेकर भागी तथा करूण क्रन्दन करती हुई जगत के रक्षक, अपने स्‍वामी श्रीकृष्ण्‍ा की शरण में आ पहुँचीं। गोपांगनाओं के रोदन और गोपों के क्रन्दन से द्रवित होकर श्रीकृष्ण ने उन्हें अभय कर दिया। फिर वे केशी पर टूट पड़े। केशी भी अपनी गर्दन ऊपर उठाये हींसता हुआ बड़े वेग से श्रीकृष्ण की ओर चला। उस समय वह दांत दिखाता हुआ आंखें फाड़-फाड़कर उनकी ओर देख रहा था। उस अश्वरूपधारी दानव केशी को अपनी ओर आते देख भगवान श्रीकृष्ण उसका सामना करने के लिये आगे बढ़े, मानो श्याम मेघ चन्द्रमा की ओर जा रहा हो। श्रीकृष्ण को केशी के निकट खड़ा हुआ देख उनके प्रति मनुष्य-बुद्धि रखने वाले हितैषी गोप उनसे इस प्रकार बोले- 'तात श्रीकृष्ण! तुम सहसा इस नीच अश्व के पास न चले जाना; क्‍योंकि तुम अभी बालक हो और यह पापात्‍मा एक दुर्धर्ष दैत्‍य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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