हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 38 श्लोक 1-17

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

विकद्रु द्वारा यदु की संतति का वर्णन तथा मथुरापुरी को जरासंध का आक्रमण सहने के अयोग्य बताना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यदु ने दीर्घकाल के पश्चात उन पांच नागकन्याओं के गर्भ से पांच पराक्रमी एवं कुल का भार वहन करने में समर्थ पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम इस प्रकार हैं- महाबाहु मुचुकुन्द, पद्यवर्ण, माधव, सारस तथा राजा हरित। ये पांचों पुत्र भूतल पर पांचभूतों के समान थे। अतुल पराक्रमी राजा यदु इन्हें देखकर बहुत प्रसन्न होते थे। जब वे वयस्क हुए, तब‍ पांच पर्वतों के समान प्रतीत होने लगे। एक दिन अपने बल और दर्प से प्रोत्साहित होकर वे अपने पिता के सामने खड़े होकर इस प्रकार बोले- ‘तात! अब हम बड़ी अवस्था के हो गये, महान बल में हमारी स्थिति है (हम महान बलवान हैं); अत: शीघ्र आपकी आज्ञा चाहते हैं, बताइये, आपके आदेश से हम कौनसा कार्य करें? नरेशों में सिंह के समान पराक्रमी यदु ने सिंहों की सदृश वेगशाली अपने उन पुत्रों से उनके बल-पराक्रम को जानने की उत्सुक्ता से अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘मेरा पुत्र मुचुकुन्द विन्य और ऋक्षवान पर्वतों के निकट पर्वतीय भूमि का ही आश्रय ले यत्नपूर्वक दो पुरियां बसाये।


मेरा बेटा पद्यवर्ण भी दक्षिण दिशा का आश्रय ले सह्य पर्वत के शिखर पर शीघ्र एक नगर बसाये। वहीं पश्चिम दिशा की ओर चम्पा के वृक्षों से सुशोभित मनोरम प्रदेश में बेटा सारस एक रमणीय राजधानी की स्थापना करे। मेरा पुत्र यह महाबाहु माधव ज्येष्ठ तथा धर्मज्ञ है, वह युवराज होकर अपने इसी नगर का (जो रैवत के समीप है) का पालन करेगा।' उन सबको राजलक्ष्मी प्राप्त हुई। सबका विभिन्न राज्यों पर अभिषेक हुआ तथा सभी छत्र-चामर आदि राजोचित चिह्नों से अलंकृत हुए। तत्पश्चात पिता की आज्ञा पाकर लोकपालों के समान वे चारों नृपश्रेष्ठ राजकुमार अपने-अपने घर में गये।

फि‍र उन्होंने क्रमश: सुरम्य राजधानी बनाने के लिये स्थान की खोज प्रारम्भ की। राजर्षि मुचुकुन्द ने विन्य पर्वत के मध्यवर्ती स्थान को पसंद किया। उन्होंने विषम प्रस्तर खण्डों से भरे हुए दुर्गम नर्मदा तट पर अपना स्थान बनाया। उन्होंने उस स्थान का शोधन किया और उसे एकान्तर एवं पवित्र बनाया। समसेतु का निर्माण किया और अथाह जल से भरी हुई खाइयां खुदवाईं। नगर के विभिन्न भागों में बहुत-से देव मन्दिर भी स्थापित किये। सड़कें, गलियां, जन साधारण के मार्ग तथा चौराहे बनवाये और वन भी लगवाये। उन नृपश्रेष्ठ मुचुकुन्द ने उस पुरी को थोड़े ही दिनों में धन-धान्य से सम्पन्न करके इन्द्रपुरी के समान प्रकाशित एवं सुशोभित कर दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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