हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवादउस समय उसके मनोभाव को जानकर देवराज इन्द्र ने नारद जी से कहा- नारद जी! आप शीघ्र ही प्रद्युम्न के रथ के पास चले जाइये और उन महाबाहु वीर को समझाइये तथा उन्हें उनके पूर्व जन्म का स्मरण दिलाइये। साथ ही शम्बरासुर के वध के लिये उन्हें वैष्णवास्त्र प्रदान कीजिये। असुर संहार के कर्म में लगे हुए इन्हें अभेद्य कवच भी दीजिये। इन्द्र के ऐसा करने पर नारद जी बड़ी उतावली के साथ वहाँ गये और आकाश में खड़े होकर कमरध्वज काम से इस प्रकार बोले- 'कुमार! देखो, मैं देवगन्धर्व नारद यहाँ आया हूँ। देवराज इन्द्र ने मुझे समझाने के लिये यहाँ भेजा है। मानद! तुम अपने पूर्व जन्म का स्मरण करो। तुम साक्षात कामदेव हो। भगवान शंकर की क्रोधाग्नि से दग्ध हो गये थे, इसलिये इस जगत में अनंग कहलाते हो। तुम्हारा वर्तमान जन्म वृष्णिवंश में हुआ है। तुम रुक्मिणि देवी के गर्भ से उत्पन्न हुए हो। साक्षात भगवान केशव ने तुम्हें जन्म दिया है। तुम प्रद्युम्न नाम से पुकारे जाते हो। मानद! तुम्हारे जन्म की सावतीं रात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि शम्बरासुर तुम्हें सूतिकागार से हरकर यहाँ उठा लाया। महाबाहो! देवताओं का कार्य सिद्ध करने और शम्बरासुर को मारने के लिये ही भगवान श्रीकृष्ण ने तुम्हारे अपहरण की उपेक्षा की। यह जो मायावती नाम से प्रसिद्ध शम्बरासुर की भार्या बनी बैठी है, इसे तुम अपनी कल्याणमयी पुरातन पत्नी रति समझो तुम्हारे शरीर की रक्षा करने के लिये ही इसने शम्बरासुर के घर में निवास किया है। उस दुरात्मा दैत्य को मोहने के लिये यह अपने शरीर से एक मायामयी स्त्री प्रकट करके उसकी प्रसन्नता के लिये सदा भेजा करती है। प्रद्युम्न! यह सब समाचार जानकर ही तुम्हारी पत्नी वहाँ स्थिरतापूर्वक रहती है। वीर! तुम वैष्णवास्त्र के द्वारा युद्ध में शम्बरासुर का वध करके अपनी भार्या मायावती को साथ ले द्वारका को जाने योग्य हो। शत्रुसूदन! यह वैष्णवास्त्र तथा अत्यन्त कान्तिमान कवच संग्रह करके इन्द्र ने तुम्हारे लिये भेजा है। तुम इन्हें ग्रहण करो। अब तुम दूसरी बात सुनो और नि:शंक होकर उसका पालन करो। तात! इस देवद्रोही का मुद्गर नित्य शक्तिशाली है। पार्वती देवी ने प्रसन्न होकर व शत्रुनाशक मुद्गर इसे प्रदान किया था। वह संग्राम में देवताओं, दानवों और मानवों के लिये भी अमोघ है। उस अस्त्र का निवारण करने के लिये तुम्हे पार्वती देवी का स्मरण करना चाहिये। युद्ध के लिये उत्सुक रहने वाले वीरों को महादेवी पार्वती की स्तुति और वन्दना अवश्य करनी चाहिये। शत्रु के साथ संग्राम करते समय तुम्हें पार्वती देवी की स्तुति के लिये भी अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा कहकर नारद जी जहाँ इन्द्र थे, वहीं चले गये। इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में शम्बरवध के प्रसंग में नारद जी का वाक्य विषयक एक सौ छठा अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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