हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 106 श्लोक 21-41

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षडधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद

बुद्धिमान रुक्मिणीनन्दन के द्वारा जब वह सिंहमयी माया रची गयी, तब जैसे सूर्योदय से रात्रि का अन्धकार नष्ट होता है, उसी प्रकार वह हाथियों से युक्त माया विलीन हो गयी। उस हस्तिमयी माया का नाश हुआ देख महान असुर दानवराज शम्बर ने दूसरी सम्मोहिनी नामक माया का प्रयोग किया। मय द्वारा निर्मित उस मोहिनी माया को देखकर पराक्रमी प्रद्युम्न ने संज्ञास्त्र के द्वारा उसका नाश का डाला। जब वह माया भी नष्ट हो गयी, तब कुपित हुए महातेजस्वी दानवराज शम्बर ने सिंहमयी माया की सृष्टि की। सिंह को अपने ऊपर आते देख प्रतापी रुक्मिणीकुमार ने गान्धर्वास्‍त्र लेकर शरभों की सृष्टि की। वे आठ पैरों वाले तथा प्रचण्ड बलशाली थे। नख और दाढे़ं ही उनके आयुध थी। जैसे वायु बादलों को उड़ा देती है, उसी प्रकार उन शरभों ने शत्रु के उन सिंहों को मार भगाया। शरभमयी माया से सिंहों को भागते देख शम्बरासुर इन चिन्ता में पड़ा कि मैं किस प्रकार प्रद्युम्न का वध करूँ। अहो! मैं बड़े मूर्ख स्वभाव का हूँ, क्योंकि मैंने बालयावस्था में ही इसका वध नहीं कर डाला। अब तो जवानी का शरीर पाकर यह दुर्बुद्धि शत्रु सम्पूर्ण अस्त्रों का ज्ञाता भी हो चुका है। अत: युद्ध के मुहाने पर खड़े हुए इस शत्रु का मैं किस प्रकार वध करूँगा।

अच्छा, वह पन्नगी नामक अत्यन्त: दु:सह एवं भीषण माया अभी मेरे पास मौजूद है, जिसे असुरघाती देवाधि देव महादेव जी ने मुझे दिया था। विषधर सर्पों से युक्त उस महामाया की मैं सृष्टि करता हूँ, उससे यह बलवान मायामय दुष्टात्मा शत्रु अवश्य दग्ध हो जायगा। ऐसा सोचकर उस असुर ने पन्नगी माया की सृष्टि की, जो विष की ज्वालाओं से व्याप्त थी। उस सर्पमयी माया से शम्बर ने रथ, घोड़े और सारथि सहित प्रद्युम्न को सर्पाकार बाणों के बन्धनों द्वारा बाँध लिया। अपने को सर्पों से बद्ध होते देख वृष्णिवंशी प्रद्युम्न ने सर्पों को नाश करने वाली सौपर्णी (गरुड़ सम्बन्धिनी) माया का चिन्तन किया। महात्मा प्रद्युम्न ने ज्यों ही उस महामाया का चिन्तन किया, त्यों ही वहाँ बहुत-से गरुड़ पक्षी आकर विचरने लगे और वे महाविषधर सर्प नष्ट हो गये। उस सर्पमयी माया के नष्ट होने पर देवता और असुर सभी प्रद्युम्न की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे, रुक्मिणी का आनन्द बढ़ाने वाले महाबाहु वीर! तुमने बहुत अच्छा किया। तुम्हारे द्वारा जो इस माया की पराजय हुई है, इससे हम बहुत संतुष्ट है।

उस सर्पमयी माया के नष्ट होने पर शम्बरासुर ने पुन: सोचा अभी मेरे पास सुवर्णभूषित मुद्गर है, जो कालदण्ड के समान भयंकर है। वह युद्ध में देवता, दानवों और मानवों के द्वारा भी प्रतिहत होने वाला नहीं है, मैं उसी का प्रयोग करूँगा। पूर्व काल में परम संतुष्ट हुई पार्वती देवी ने मुझे वह मुद्गर दिया और इस प्रकार कहा- 'शम्बर! तू यह सुवर्णभूषित मुद्गर ग्रहण कर। मैंने अपने शरीर से अत्यन्त दुष्कर तपस्या करके इसकी सृष्टि की है। यह मायाओं का अन्त करने वाला तथा समस्त असुरों का विनाशक है। इसके द्वारा मैंने इच्छानुसार रूप धारण करने वाले दो बलवान एवं भयंकर दानव शुम्भ और निशुम्भ का उनके सैनिकगणों सहित संहार किया है। प्राण संकट की स्थिति आने पर ही तुझे अपने शत्रु पर इस मुद्गर का प्रयोग करना चाहिये। ऐसा कहकर पार्वती देवी वहीं अन्तर्धान हो गयी थीं, अत: मैं उसी श्रेष्ठ मुद्गर का अपने शत्रु पर प्रहार करूँगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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