हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवादउन्हें गाते देख महात्मा श्रीकृष्ण ने भी बलराम जी का हर्ष बढ़ाने के लिये सत्यभामा के साथ गान आरम्भ कर दिया। नरलोक के प्रमुख वीर कुन्तीनन्दन अर्जुन भी समुद्र यात्रा के लिये वहाँ आये थे। वे भी आनन्द में मग्न होकर श्रीकृष्ण और सुन्दरांगी सुभद्रा के साथ गीत अलापने लगे। नरेश्वर! फिर तो बुद्धिमान गद, सारण, प्रद्युम्न, साम्ब, सात्यकि, उदार पराक्रमी सत्यभामाकुमार भानु[1] और अत्यन्त मनोहर रूप वाले सुचारुदेष्ण, बलराम जी के पुत्र दोनों वीर कुमार निशठ और उल्मुक जो अत्यन्त वीर थे, गाने लगे। अक्रूर, यादव सेनापति अनाधृष्टि, शंकु तथा भीमकुल के अन्य प्रधान पुरुष भी वहाँ गान करने लगे। उदार कीर्ति वाले नरेन्द्र कुमार! उस समय वह यानपात्र (जहाज) गाते हुए प्रमुख यादव वीरों से ज्यों-ज्यों भरता गया त्यों-ही-त्यों श्रीकृष्ण के प्रभाव से बढ़ता चला गया। वीर राजकुमार! रास में संलग्न हो अत्यन्त गीत गाने वाले उन देवोपम यादव वीरों के साथ सारा जगत हर्षोल्लास से परिपूर्ण हो गया। सबके पाप-ताप शान्त हो गये। तदनन्तर मुर और केशी के शत्रु श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिये देवताओं के अतिथि विप्रवर नारद जी उन यादव-शिरोमणियों के बीच में आकर गान करने लगे। उनके शरीर का एक देश उनके जटा-कलाप से आच्छादित था। राजपुत्र! वे अप्रमेय स्वरूप नारद मुनि ही वहाँ रासनृत्य के प्रणेता (संचालक या सूत्रधार) हो गये। वे अपने अनुकरणशील अंगों द्वारा लीला का अनुकरण करते हुए यादव-मण्डली के मध्य में पहुँचकर गीत गाने लगे। वे बुद्धिमान मुनि सत्यभामा, श्रीकृष्ण, अर्जुन, सुभद्रा, बलदेव तथा रेवतराजकुमारी रेवती देवी की ओर देख-देखकर हँस रहे थे। परिहासशील बुद्धिमान नारद जी किसी की चेष्टाओं का, किसी की हँसी का और किसी की लीलाओं का अनुकरण करके तथा अन्य प्रकार के दूसरे-दूसरे उपायों द्वारा उन अत्यन्त धैर्यशालिनी देवियों को भी हँसा देते थे। जब कोई कुछ मन्द स्वर में बहुत थोड़ा और धीरे-धीरे बोलता तो ऐश्वर्यशाली नारद जी उसके उत्तर में बहुत ही ऊँचे स्वर में सिंहनाद-सा करते हुए जोर-जोर से बोलने लगते थे और हास्य के अवसर पर हँसते-हँसते हर्षातिरेक से अट्टहास करने लगते थे। यह सब कुछ वे श्रीकृष्ण के मनोरंजन के लिये करते थे। नरदेवकुमार! श्रीकृष्ण की आज्ञा से वहाँ बैठी हुई युवतियों ने जगत के प्रधान-प्रधान रत्न, सुन्दर वस्त्र जो मुनि के अनुरूप थे, उन्हें अधिक मात्रा में दिये। श्रीकृष्ण के संकेत तथा समय की आवश्यकता को समझने वाली उन रानियों ने उस समय स्वर्गीय पुष्पहार, संतान- (पारिजात) पुष्पों की लड़ियां, अतिमुक्तक तथा सभी ऋतुओं में खिलने वाले फूल उन्हें अर्पित किये। रास के अन्त में अप्रमेयस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण नारद-मुनि का हाथ पकड़कर तथा सत्यभामा और अर्जुन को भी साथ में लेकर समुद्र के जल में कूद पड़े। तदनन्तर अप्रमेय पराक्रमी तथा प्रचुर शोभा से सम्पन्न श्रीकृष्ण ने किंचित मुस्कराकर सात्यकि से कहा- ‘तुम सब लोग दो भागों में बँटकर अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ ही इस क्रीड़ा जल में कूद पड़ो। मेरे सारे पुत्र और आधे यदुवंशी इन सबको मिलाकर जो आधे द्वारकावासियों का दल होगा, उसके नेता रेवती सहित बलभद्र जी हों और आधे भीमवंशियों के साथ बलराम जी के सभी पुत्र ये मेरे पक्ष में रहें।' इस प्रकार समुद्र के जल में (दो दलों में बँटकर हम लोग क्रीड़ा करें)। तदनन्तर श्रीकृष्ण ने पूर्ण विश्वस्त होकर वहाँ हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए समुद्र को आज्ञा दी- ‘तुम अपने जल को सुगन्धित और शुद्ध एवं स्वादिष्ट बना लो तथा ग्राहों से रहित हो जाओ। तुम्हारी तटभूमि रत्नों से विभूषित दिखायी दे, पैरों के लिये सुखदायिनी हो तथा लोगों के लिये जो मनोअनुकूल वस्तुएं हों, वे सब उन्हें अर्पण करो। मेरे प्रभाव से तुम्हें सबकी अभीष्ट वस्तुओं का ज्ञान हो जायगा। यद्यपि तुम्हारा जल अपेय है तो भी वह प्रिय एवं पीने योग्य हो जायगा। तुम सब लोगों के मनोअनुकूल हो जाओगे। तुम्हारे भीतर जो मत्स्य हैं, वे वैदूर्य, मोती, मणि और सुवर्ण से चित्रित तथा सौम्य रूप वाले हो जायेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत के अनुसार सत्यभामा के बड़े बेटे का नाम भानु था। इनसे छोटे नौ भाइयों के नाम इस प्रकार हैं- सुभानु, स्वर्भानु, भानुमान, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
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