हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 57 श्लोक 60-70

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तपञ्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 60-70 का हिन्दी अनुवाद

श्रीकृष्ण ने कहा- 'राजन! चन्द्रवंश में नहुष के पुत्र राजा ययाति हो गये हैं। उनके ज्येष्ठ पुत्र यदु थे। यदु के चार छोटे भाई और थे। विभो! नरेश्वर! आपको विदित हो कि मैं यदुवंश में उत्पन्न‍ हुआ हूँ। वसुदेव का पुत्र हूँ, अतएव लोग मुझे वासुदेव कहते हैं। मैं वासुदेव ही यहाँ आया हूँ। आप त्रेतायुग में सोये थे। मुझे आपके विषय में नारद जी से सब बातें ज्ञात हुई हैं। इस समय द्वापर और कलियुग की संधि का काल समझिये। इसके सिवा आपकी क्या सेवा करूँ। नरेश्वर! तुमने मेरे उस शत्रु को जलाकर भस्म किया है, जिसे देवताओं से वरदान प्राप्त था और जो युद्ध में मेरे द्वारा सौ वर्षों में भी नहीं मारा जा सकता था।'

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर राजा मुचुकुन्द गुफा के द्वार से बाहर निकले। उनके पीछे कृतकृत्य हुए बुद्धिमान श्रीकृष्ण भी थे उन्होंने देखा, पृथ्वी पर छोटे-छोटे मनुष्य भरे हुए हैं। उन सबके उत्साह, बल, वीर्य और पराक्रम बहुत थोडे़ हैं। अब अपना केवल राज्य बच गया है, जिस पर दूसरे का प्रभुत्व स्थापित हो चुका है तब राजा ने बड़े प्रेम से भगवान श्रीकृष्ण को विदा किया और स्वयं अपने मन में तपस्या का निश्चय करके हिमालय पर्वत पर वहाँ के विशाल वन में चले गये। वहाँ तपस्या करके शरीर को त्या‍ग कर राजा मुकुन्द अपने अशुभ निवारक पुण्यकर्मों के द्वारा स्वर्गलोक में जा पहुँचे। इधर महामनस्वी धर्मात्मा भगवान वासुदेव ने भी अपने शत्रु को पूर्वोंक्त रूप से मरवाकर उसकी सारी सेना पर अधिकार कर लिया।

बुद्धिमान श्रीकृष्ण बहुसंख्यक रथ, हाथी, घोड़े, कवच, अस्त्र, शस्त्र और ध्वाजाओं से युक्त सेना को, जिसका राजा मारा गया था, अपने साथ ले गये उनका मनोरथ पूर्ण हो चुका था। जनार्दन ने वह पूरी सेना राजा उग्रसेन को समर्पित कर दी और उस प्रचुर धनराशि से उन्‍होंने द्वारकापुरी की शोभा बढ़ायी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत के खिलभाग हरिवंश के अन्तर्गत विष्णु पर्व में कालयवन का वध विषयक सत्तावनवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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