महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 26 श्लोक 19-44

षड़र्विंश (26) अध्याय: स्त्री पर्व (श्राद्ध पर्व)

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महाभारत: स्‍त्रीपर्व: षड़र्विंष अध्याय: श्लोक 19-44 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर बाले- महाराज! पहले आपकी आज्ञा से जब मैं वन में विचरता था, उन्हीं दिनों तीर्थ यात्रा के प्रसंग से मुझे एक महात्मा का इस रूप में अनुग्रह प्राप्त हुआ। तीर्थ यात्रा के समय देवर्षि लोमश का दर्शन हुआ था। उन्हीं से मैंने यह अनुस्मृति विद्या प्राप्त की थी। इसके सिवा पूर्वकाल में ज्ञानयोग के प्रभाव से मुझे दिव्य दृष्टि भी प्राप्त हो गयी थी। धृतराष्ट्र ने पूछा- भारत! यहाँ जो अनाथ और सनाथ योद्धा मरे पड़े हैं, क्या तुम उनके शरीरों का विधिपूर्वक दाह संस्कार करा दोगे। जिनका कोई संस्कार करने वाला नहीं है तथा जो अग्निहोत्री नहीं रहे हैं, उनका भी प्रेतकर्म तो करना ही होगा, तात! यहाँ तो बहुतों के अंत्येष्टि कर्म करने हैं, हम किस-किस का करें। युधिष्ठिर! जिनकी लाशों का गरुड़ और गीध इधर-उधर घसीट रहें हैं, उन्हें तो श्राद्ध कर्म से ही शुभ लोक प्राप्त होंगे।

वैशम्पायन जी कहते हैं- महाराज! राजा धृतराष्ट्र के ऐसा कहने पर कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर ने सुधर्मा, धौम्य, सारथी संजय, परम बुद्धिमान विदुर, कुरुवंशी युयुत्सु तथा इन्द्रसेन आदि सेवकों एवं सम्पूर्ण सूतों को यह आज्ञा दी है कि आप लोग इन सबके प्रेत कार्य सम्पन्न करावें। ऐसा न हो कि कोई भी लाश अनाथ के समान नष्ट हो जाय। धर्मराज के आदेश से विदुर जी, सारथी संजय, सुधर्मा, धौम्य तथा इन्द्रसेन आदि ने चंदन और अगर की लकड़ी कालियक, घी, तेल, सुगन्धित पदार्थ और बहुमूल्य रेशमी वस्त्र आदि वस्तुऐं एकत्रित कीं, लकडि़यों का संग्रह किया, टूटे हुए रथों और नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को भी एकत्र कर लिया। फिर उन सबके द्वारा प्रयत्नपूर्वक कई चिताएँ बनाकर जेठे, छोटे के क्रम से सभी राजाओं का शास्त्रीय विधि के अनुसार उन्होंने शांत भाव से दाह संस्कार सम्पन्न कराया।

राजा दुर्योधन, उनके निन्यानवें माहरथी भाई, राजा शल्य, शल, भूरिश्रवा, राजा जयद्रथ, अभिमन्यु, दु:शासन पुत्र, लक्ष्मण, राजा धृष्टकेतु, बृहन्त, सोमदत्त, सौ से भी अधिक सृंजय वीर, राजा क्षेमधन्वा, विराट, द्रुपद, शिखण्डी, पाञ्चाल देशीय द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, युधामन्यु, पराक्रमी उत्तमौजा, कोसलराज बृहद्बल, द्रौपदी के पांचों पुत्र, सुबल पुत्र शकुनि, अचल, वृषक, राजा भगदत्त, पुत्रों सहित अमर्षशील वैकर्तन कर्ण, महाधनुर्धर पांचों कैकयराजकुमार, महारथी त्रिगर्त, राक्षसराज घटोत्कच, बक के भाई राक्षस प्रवर अलम्बुष और राजा जलसंघ- इनका तथा अन्य बहुतेरे सहस्रों भूपालों का घी की धारा से प्रज्वलित हुई अग्नियों द्वारा उन लोगों ने दाह कर्म कराया।

किन्ही महामनस्वी वीरों के लिये पितृमेध (श्राद्धकर्म) आरम्भ कर दिये गये। कुछ लोगों ने वहाँ सामगान किया तथा कितने ही मनुष्यों ने वहाँ मरे हुए विभिन्न जनों के लिये महान शोक प्रकट किया। सामवेदीय मंत्रों तथा ऋचाओं के घोष और स्त्रियों के रोने की आवाज से वहाँ रात में सभी प्राणियों को बड़ा कष्ट हुआ। उस समय स्वल्प धूमयुक्त प्रज्वलित तथा जलायी जाती हुई चिता की अग्नियाँ आकाश में सूक्ष्म बादलों से ढँके हुए ग्रहों के समान दिखाई देती थीं। इसके बाद वहाँ अनेक देशों से आये हुए जो अनाथ लोग मारे गये उन सबकी लाशों को मंगवाकर उनके सहस्रों ढेर लगाये। फिर घी-तेल में भिगोई हुई बहुत सी लकडि़यों द्वारा स्थिर चित्त वाले लोगों से चिता बनाकर उन सबको विदुर जी ने राजा की आज्ञा के अनुसार दग्ध करवा दिया। इस प्रकार उन सबका दाह कर्म कराकर कुरुराज युधिष्ठिर धृतराष्ट्र को आगे करके गंगा जी की ओर चले गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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