हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 48-66 का हिन्दी अनुवादबलाभिमानी चाणूर के मारे जाने पर रोहिणीनन्दन बलराम ने उस रंगभूमि में मुष्टिक को पकड़ लिया तथा श्रीकृष्ण ने पुन: तोशल को धर दबाया। युद्ध आरम्भ होने पर पहले तो काल के अधीन हुए वे दोनों असुर मल्ल क्रोध से मूर्च्छित हो बलराम और श्रीकृष्ण से भिड़ गये; परंतु जब उन दोनों वीरों की मार पड़ी, तब वे सिर झुकाकर अखाड़े में इधर-उधर उछल-कूद मचाने लगे। बलवान श्रीकृष्ण ने पर्वत शिखर के समान विशालकाय तोशल को दोनों हाथों से उठा लिया और सौ बार घुमाने के बाद पृथ्वी पर पटककर उसे पीस डाला। श्रीकृष्ण के द्वारा आक्रान्त एवं पीड़ित होकर मरणासन्न हुए उस महाबली मल्ल के मुख से बहुत अधिक रक्त निकलने लगा। इधर महाबली महामल्ल संकर्षण आन्ध्रदेशीय मल्ल मुष्टिक के साथ देर तक युद्ध करके उसे कुश्ती के अनेक पैंतरे दिखाने लगे। फिर उन तेजस्वी वीर ने उसके मस्तक पर एक मुक्का मारा। उससे वज्रपात के समान शब्द हुआ। मानों किसी महान पर्वत पर वज्र से आघात किया गया हो। इससे उसका मस्तक फटकर गिर पड़ा, आँखे निकल आयी और बलराम जी के द्वारा मारा गया वह मल्ल पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय बड़े जोर से धमाके का शब्द हुआ। आन्ध्रदेशीय मुष्टिक और तोशल इन दोनों को मारकर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई क्रोध से लाल आँखें किये अखाड़े में उछलने-कूदने लगे। उस समय महामल्ल चाणूर और मुष्टिक के मारे जाने पर वह समाजवाट (रंगभवन) मल्लों से सूना हो गया और अत्यन्त भयंकर दिखायी देने लगा। नन्द आदि जो-जो गोप यह सब देख रहे थे, उनके सारे अंग भय से क्षुब्ध हो उठे थे। वे सब लोग वहाँ चुपचाप बैठे रहे। उधर देवकी थर-थर काँपती और दोनों नेत्रों से हर्षजनित आँसुओं की वर्षा करती हुई स्तनों में दूध की बाढ़ आ जाने से पीड़ित हो श्रीकृष्ण की ओर देख रही थी। श्रीकृष्ण-दर्शनजनित आँसुओं से भरे हुए नेत्रों वाले वसुदेव जी मानो वृद्धावस्था त्यागकर वात्सल्य– स्नेह से परिपुष्ट हो तरुण हो रहे थे। वहाँ जो मुख्य-मुख्य वाराग्ांनाएँ उपस्थित थीं, वे सब-की-सब निमेष के भीतर चलने वाले नेत्ररुपी भ्रमरों द्वारा श्रीकृष्ण के मुखारविन्द का रस-पान करने लगीं। तदनन्तर श्रीकृष्ण को देखने से कंस के मुख के दोनों भौंहो के बीच रोषवश पसीना निकल आया। श्रीकृष्ण के प्रति कंस जो कठोरता प्रकट करता था, वही जिसका धुआँ था तथा रोषरुपी उच्छ्वास-वायु जिसे प्रज्वलित कर रही थी, उस मानसिक चिन्तारुपी आग ने कंस के आन्तरिक हृदय को जलाना आरम्भ किया। जिसके ओठ फड़क रहे थे और ललाट में पसीना निकल आया था, कंस के उस मुख मण्डल का स्वरूप रोष के कारण लाल सूर्य के समान प्रतीत होता था। क्रोध से लाल हुए कंस के मुख से जो पसीने की बूँदें निकली थी, वे वृक्षों के पत्तों पर पड़े हुए उन ओस कणों के समान सुशोभित होती थीं, जिन्हें सूर्य की किरणों का स्पर्श प्राप्त हुआ हो। उसने अत्यन्त कुपित होकर बहुत-से व्यायामशाली पुरुषों को आज्ञा दी कि 'इन दोनों वनेचर गोपों को इस जन समुदाय से बाहर निकाल दो। ये दोनों विकृत हो गये हैं। इन्हें देखना भी पाप है। मैं इनकी ओर दृष्टिपात करना नहीं चाहता। गोपों में से भी कोई मेरे इस राज्य में नहीं रह सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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