हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 67-87 का हिन्दी अनुवादखोटी बुद्धि वाला नन्द गोप सदा मेरे प्रति कपटपूर्ण बर्तावों में ही तत्पर रहा है, अत: इसे लोहे की बेडि़यों और हथकड़ियों में बाँधकर कैद कर लो। दुराचारी वसुदेव सदा मुझसे द्वेष रखता है। इसे आज ही शीघ्र-से-शीघ्र ऐसा कठोर दण्ड दो, जो अवृद्ध (नौजवान) पुरुषों के योग्य हो। ये जो दामोदर का आश्रय लेकर रहने वाले गँवार गोप हैं, इन सबकी गौओं को तथा इनके पास जो कुछ धन हो, उसको भी छीन लो।' इस तरह आज्ञा देते और कठोर बातें कहते हुए उस कंस की ओर सत्यपराक्रमी श्रीकृष्ण ने आँखें फाड़कर देखा। पिता वसुदेव तथा नन्द गोप पर आक्षेप होते ही केशव कुपित हो उठे। उन्होंने बन्धु–बान्धवों की व्यथा और माता देवकी की अचेत-अवस्था देखकर कंस का विनाश करने के लिये उसके मंच पर चढ़ने का विचार किया। उस समय केशव का पराक्रम जाग उठा और अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले महाबाहु श्रीकृष्ण उस रंगस्थल से सिंह के समान वेगपूर्वक उछले और कंस के सिंहासन के पास जा पहुँचे, ठीक उसी तरह जैसे आकाशवर्ती महामेघ वायु से फेंका जाकर दूर पहुँच जाता है। वे कब अखाड़े से कूदे हैं, इसको सब लोगों ने नहीं देखा। पुरवासियों को वे केवल कंस के पास खड़े दिखायी दिये। कालधर्म (मौत) से घिरा हुआ कंस भी व्याकुल हो उठा और उसने यही समझा कि भगवान गोविन्द आकाश से ही मेरे पास उतर आये हैं। श्रीकृष्ण ने अपनी परिघ-जैसी मोटी एक बाँह बढ़ाकर रंगशाला में कंस की चोटी पकड़ ली। उस समय श्रीकृष्ण के हाथ से पकड़े गये कंस के सिर से उसका वज्रमणि से विभूषित सुवर्णमय मुकुट खिसककर गिर पड़ा। जैसे किसी ग्रह ने केश पकड़ लिये हों, उस अवस्था में पड़ा हुआ कंस निश्चश्रेष्ट हो गया तथा किंकर्तव्य विमूढ़ हो व्याकुलता में पड़ गया। केश पकड़ लिये जाने पर कंस मुर्दा-सा हो गया। वह लम्बी साँस लेता हुआ उस समय कृष्ण के मुख की ओर दृष्टि न डाल सका। उसके कानों से कुण्डल खिसक गये। वक्ष:स्थल का हार छिन्न-भिन्न हो गया। दोनों भुजाएँ लटक गयी। सारे अंगों के अनुपम तेज से झटके के साथ नीचे डाला गया कंस पृथ्वी पर गिरकर छटपटाने लगा। उस समय श्रीकृष्ण मंच से निकलकर बाहर आ गये। कंस क्लेश युक्त शोचनीय अवस्था में पड़ गया था। श्रीकृष्ण पुन: बलपूर्वक उसके सिर के बाल पकड़कर उस महान रंग स्थल में उसे घसीटने लगे। श्रीकृष्ण के द्वारा घसीटे जाते हुए महा तेजस्वी भोजराज कंस ने उस रंगशाला में अपनी देह की रगड़ से खाई–सी बना दी। रंगशाला में खिलवाड़ करते हुए घसीट कर निर्जीव हुए कंस के शरीर को श्रीकृष्ण ने पास ही छोड़ दिया। उसका जो शरीर सुख भोगने के योग्य था, वह मर्दित होकर पृथ्वी पर सो गया। शूरवीरों के लिये अयोग्य विपरीत विधि से धूल में सनकर वह कोमल अंग कठोर हो गया। गर्दन टूट जाने से उसका शरीर अस्त–व्यस्त हो गया था। उसके नेत्र बंद हो गये थे तथा उसका श्याम मुख मुकुट के बिना दल रहित कमल के समान सुशोभित नहीं हो रहा था। कंस बिना युद्ध के मारा गया था। उसके शरीर पर बाणों से घाव नहीं होने पाया था। उसको केश पकड़कर घसीटा गया था, इस अवस्था में उसके प्राण निकले और वह वीरोचित मार्ग से भ्रष्ट हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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