हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 33-47 का हिन्दी अनुवादवे दोनों ही एक-दूसरे से सटकर ऐसे जान पड़ते थे, मानों दो पर्वत परस्पर भिड़ गये हों। कभी दोनों दोनों को बलपूर्वक पीछे हटाते और मुक्कों से एक-दूसरे की छाती पर चोट करते थे, कभी एक को दूसरा अपने कंधे पर उठा लेता और उसका मुँह नीचे कर घुमाकर पटक देता था, जिससे ऐसा शब्द होता, मानो किसी शूकर ने चोट की हो। कभी वे दोनों योद्धा एक-दूसरे के शरीर पर कोहनियों और घुटनों से चोट करते थे, कभी हाथ की अँगुलियों के नखों से बकोट लेते थे, कभी पैरों में उलझाकर दोनों दोनों को गिरा देते। इस प्रकार भयंकर दाँव-पेंच का प्रयोग करते थे। कभी घुटनों और सिर से टक्कर मारते थे, जिससे पत्थरों के टकराने के समान शब्द होता था। जनसमुदाय के समक्ष किये जाने वाले उस उत्सव में शूरवीरों के निकट उन दोनों में केवल बाहुबल, शारीरिक बल तथा प्राणबल से किसी अस्त्र-शस्त्र के बिना ही बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध के रंग में सब लोग रँग गये। सभी दर्शक विजेता का उत्साह बढ़ाने के लिये जोर-जोर से हर्षनाद कर उठते थे। दूसरे लोग मंचों पर बैठे-बैठे ही ‘साधु-साधु’ (बहुत अच्छा, बहुत अच्छा)– की घोषणा करते थे। यह सब देख-सुनकर कंस के बदन से पसीना छूटने लगा। उसकी आँखें श्रीकृष्ण ओर ही लगी थीं। उसने बायें हाथ से संकेत करके बाजे बंद कर दिये। कंस ने जब मृदंग आदि बाघों का बजाना रोक दिया, तब आकाश में देवताओं के अनेक प्रकार के बाद्य स्वत: एक साथ बज उठे। कमलनयन श्रीकृष्ण के युद्ध करते समय सब प्रकार से बाद्य स्वयं ही बजने लगे और उनकी ध्वनि सब ओर छा गयी। देवता अदृश्य होकर श्रीकृष्ण की विजय चाहते हुए अपने कामरुपी विमानों द्वारा विद्याधरगणों के साथ वहाँ के आकाश में स्थित हो कहने लगे– 'श्रीकृष्ण! तुम्हें इस मल्लरुपधारी दानव चाणूर पर विजय प्राप्त हो।' कंस की मृत्यु को समीप देखने वाले देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने चाणूर के साथ चिर काल तक युद्ध की लीला करके अपने में अनन्त बल का समावेश किया। फिर तो धरती डोलने लगी। वहाँ बिछे हुए मंच झूमने लगे और कंस के मुकुट से भी उत्तम मणि गिर पड़ी। चाणूर की जीवनी शक्ति अथवा आयु क्षीण हो चुकी थी। श्रीकृष्ण ने अपनी दोनों भुजाओं से चाणूर को झुकाकर उसकी छाती में घुटने से चोट करके उसके मस्तक पर मुक्के से प्रहार किया। इससे स्नायु-बन्धन तथा आँसू और रक्त के साथ उसकी दोनों आँखें बाहर निकल आयीं और ऐसी दिखायी देने लगीं मानो हाथी को कसने वाली रस्सी या जंजीर में सोने की घंटियाँ लटक रही हों। आँखें निकल जाने पर जीवन के अन्त में प्राण शून्य हुआ चाणूर अखाड़े के बीच में गिर पड़ा। जिसकी आयु समाप्त हो गयी थी, उस चाणूर-मल्ल के शरीर से वह विशाल रंगस्थल इस प्रकार अवरुद्ध दिखायी देता था, मानो किसी पर्वत से रुँध गया हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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