हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवादयह सुनकर उस जन समाज में कोलाहल मच गया। तब भगवान श्रीकृष्ण उछल पड़े और इस प्रकार बोले- 'मैं बालक हूँ और यह महामल्ल अन्ध्र शरीर से पर्वत-जैसा दिखायी देता है, तथापि इस बाहुशाली वीर के साथ मेरा युद्ध हो, यह मुझे पसंद है। मेरी ओर से युद्ध-सम्बन्धी नियम का कोई उल्लंघन नहीं होगा। बाहु युद्ध करने वाले योद्धाओं का जो मत है, उसे मैं कलंकित नहीं करुँगा। गोअर के चूर्ण को उबटन के समान शरीर में मलना, जल से धोना और गेरु के रंग का लेपन करना रंगस्थल (अखाड़े में उतरने वालों)- का धर्म है, यह मल्लों का बनाया हुआ आचार है। संयम (एक-दूसरे को पीछे हटाना), स्थिरता (अपने स्थान से नहटना), शौर्य, व्यायाम (स्थिर रहते हुए भी हाथ-पैर चलाना), सतक्रिया (सद्वर्तात- मर्म स्थानों में चोट न पहुँचाना), असद्व्यवहार से बचते हुए भी अधिक-से-अधिक बल प्रकट करना, इन छ: साधनों के द्वारा रंगभूमि में विजय रूप सिद्धि का प्राप्त होना निश्चित है; यह मल्ल युद्ध के विद्वानों का मत है। यह (चाणूर अथवा कंस) इस वैर रहित युद्ध को भी वैर युक्त कर देने पर तुला हुआ है, अत: यहाँ इसका निग्रह करना आवश्यक है, ऐसा करके मैं सम्पूर्ण जगत को संतुष्ट करुँगा। यह चाणूर नामक बाहुयोधी मल्ल करूष देश में उत्पन्न हुआ है। इसके शरीर और कर्म से जो घटनाएँ घटित हुई हैं, उन पर भी आप लोग विचार कर लें। इसने रंगभूमि में अपना प्रताप प्रकट करने या दबदबा जमाने की इच्छा बहुतेरे पहलवानों को भूमि पर गिेराने बाद मार डाला और इस प्रकार मल्ल-मार्ग को कलंकित किया है। परंतु यह मल्ल-युद्ध का मार्ग शारीरिक बल और दाँव-पेंच के कौशल से प्रकट हुआ है। अखाड़े में मरने वाले को कहाँ स्वर्ग मिलता है? अथवा जीतने वाले को कहाँ का सुख प्राप्त होता है? किसी पण्डितमानी राजा का प्रताप बढ़ाने के लिये जो कोई भी मल्ल किसी पहलवान के द्वारा अपने अपराध से मारे गये हैं, वहाँ उस मल्ल-हत्यारे को हत्याजनित पाप ही लगता है।' जब श्रीकृष्ण ऐसा कह रहे थे, उसी समय उनमें और चाणूर में– दोनों में ही अत्यन्त दारुण एवं भयानक युद्ध होने लगा, जैसे वन में दो हाथी लड़ पड़ें। उनमें से जब एक-दूसरे का कोई अंग जोर से दबाता, तब दूसरा तुरंत उसका प्रतीकार करता- उस अंग को उसकी पकड़ से छुड़ा लेता था। दोनों एक-दूसरे के हाथों को मुट्ठी से पकड़कर विवश कर देते और विचित्र ढंग से परस्पर प्रहार करते थे। दोनों ही एक-दूसरे को अपनी भुजाओं में बाँधकर रोक लेते, कभी दोनों आपस में गुँथ जाते और फिर धक्के देकर दूर हटा देते थे। कभी एक-दूसरे को जमीन पर पटककर रगड़ता तो दूसरा नीचे से ही कुलाँचकर ऊपर वाले को दूर फेंक देता या लिये-दिये खड़ा हो अपने शरीर से दबाकर उसके अंगों को भी मथ डालता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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