हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 40-61 का हिन्दी अनुवाद
कंस! तुमने रात के समय जिस कन्या को शिला पर दे मारा था, उसे यशोदा की पुत्री समझो और वहाँ जो श्रीकृष्ण है, वही वसुदेव (तथा देवकी)- का पुत्र है। तुम्हारे मित्ररूपधारी शत्रु वसुदेव ने रात के समय छलपूर्वक तुम्हारे वध के लिये इन दोनों बच्चों की अदला-बदली कर ली थी।" यशोदा की वह कन्या पर्वतों में श्रेष्ठ विन्ध्यगिरि पर जाकर रहती है। वहाँ उस पर्वत पर विचरने वाले जो शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दानव थे, उनका वध करके प्रतिष्ठित हुई है। प्राणियों के समुदाय द्वारा सेवित वह देवी उपासकों को अभीष्ट वर देने वाली है। उसे महती पूजन-सामग्री और वहाँ विचरने वाले पशु प्रिय हैं। वहाँ भयानक दस्यु उस देवी का अभिषेक करके पूजन करते हैं। वह मधु तथा फल के गूदों से भरे हुए दो कलशों से सुशोभित होती है। मोरपंख के बने हुए विचित्र भुजदण्ड तथा मोरों की पांख से ही बनाये गये दूसरे-दूसरे आभूषण उस देवी के अलंकार हैं। उस विन्ध्य पर्वत पर उसके अपने ही तेज से निर्मित हुआ स्थान एक सुन्दर वन है जहाँ हर्ष में भरे हुए मुर्गों का कलनाद सुनायी देता है कौओं के समुदाय भी वहाँ भरे रहते हैं तथा मन के अनुकूल पक्षियों से भी वह स्थान सुशोभित रहता है। वहाँ सिंहों, व्याघ्रों और वराहों की गर्जना का गम्भीर शब्द प्रतिध्वनित होता रहता है। वृक्षों के बाहुल्य से वह गम्भीर एवं गहन प्रतीत होता है। सब ओर से दुर्गम स्थानों द्वारा वह घिरा हुआ है। दिव्य गड़ुआ,चँवर और दर्पण देवी के उस स्थान की शोभा बढ़ाते हैं। सैकड़ों देववाद्यों की ध्वनियों से वह वन गूँजता रहता है। शत्रुओं को त्रास देने वाली वह देवी सदा उसी मनोरम वन में प्रसन्नतापूर्वक निवास करती है। वहाँ देवता भी उसकी पूजा करते हैं। यह कृष्ण नाम से प्रसिद्ध जो नन्दगोप का पुत्र बताया जाता है, उसके विषय में नारद जी ने मुझसे कहा है कि "व्रज में जो पूतना-वध आदि बड़े-बड़े कर्म हो रहे हैं, उनका प्रधान कारण वही है। वह वसुदेव से उत्पन्न होने वाला दूसरा पुत्र है, इसलिये वासुदेव नाम से विख्यात होगा। वह तुम्हारी सहज मृत्यु तथा बान्धव भी होगा।" वसुदेव का वह बलवान पुत्र वासुदेव ही धर्मत: मेरा बान्धव है; किंतु हृदय से विनाशकारी शत्रु बना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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