हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 22-39 का हिन्दी अनुवाद
उस नाग के हट जाने का उचित उपाय करके नन्दगोप का यह पुत्र पुन: जल से बाहर निकल आया। धेनुकासुर को ताड़ के शिखर से गिराकर प्राणशून्य कर दिया। युद्ध में देवता भी जिस प्रलम्बासुर का सामना करने या उसे हरा देने की शक्ति नहीं रखते थे, उसे इस बालक ने केवल एक मुक्के से मारकर साधारण मनुष्य की भाँति काल के गाल में भेज दिया। इन्द्र के उत्सव को भंग करके उनके रोष से होने वाली वर्षा पर भी काबू पा लिया और गौओं के लिये सुरक्षित घर प्रस्तुत करने के लिये गोवर्धन पर्वत को हाथ पर उठा लिया। व्रज में बलवान अरिष्टासुर को मार डाला और उसका सींग उखाड़ लिया। यह वास्तव में बालक नहीं है, केवल बाल्यवस्था का आश्रय लेकर बालकों- जैसा खेल कर रहा है। गौओं के व्रज में निवास करने वाले इस बालक के कर्मों की जो इस प्रकार परम्परा चल रही है, उसे देखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मुझ पर और केशी पर भी निश्चय ही भय आने वाला है और वह भय दूर नहीं अत्यन्त निकट है। पूर्वजन्म में इस शरीर के लिये जो भूतपूर्व मृत्यु था, वही इस समय भी युद्ध की अभिलाषा रखकर सदा मेरे सामने खड़ा रहता है। कहाँ तो अशुभ गोपत्व और मौत की दुर्बलता धारण करने वाला मानव-शरीर तथा कहाँ उसका मेरे व्रज में रहकर देवतुल्य प्रभाव से अद्भुत क्रीड़ा करना। अहो! कितने आश्चर्य की बात है कि यह कोई देवता अपने स्वरूप को नीच गोपवेष में छिपाकर श्मशान में स्थित हुई अग्नि के समान यहाँ रम रहा है। सुना जाता है कि पूर्वकाल में विष्णु ने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये वामन रूप धारण करके राजा बलि के हाथ से इस पृथ्वी को छीन लिया था। उन्हीं प्रभावशाली विष्णु ने सिंह का-सा रूप बनाकर दानवों के पितामह हिरण्यकशिपु का वध कर डाला था। इसी तरह पूर्वकाल में रुद्र (रूपधारी विष्णु) ने अचिन्त्य रूप का आश्रय लेकर श्वेताचल के शिखर पर स्थित हो त्रिपुर का नाश करके दैत्यों को वहाँ से नीचे गिरा दिया था। बृहस्पति के पुत्र कच ने दार्दुरी माया में प्रविष्ट होकर शुक्राचार्य को अपनी प्रतिज्ञा से विचलित कर दिया था। उन्होंने ही दैत्यों के जगत में ‘अनावृष्टि’ उत्पन्न कर दी थी। (जिससे दैत्यों की बड़ी भारी हानि हुई।[1] ये कच भी विष्णु की ही विभूति थे)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जैसे मेंढक बारम्बार मरकर उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार कच भी दैत्यों द्वारा बारम्बार मारे जाने पर जीवित हुए। यही उनका दार्दुरी माया में प्रवेश है। एक बार दानवों ने कच को मारकर युक्ति से शुक्रचार्य के पेट में पहुँचा दिया। उनकी जीवन-रक्षा के लिये विवश होकर शुक्राचार्य को ‘संजीवनी विद्या किसी को भी नहीं सिखाऊँगा’ अपनी यह प्रतिज्ञा छोड़नी पड़ी और उन्होंने कच को विद्या सिखा दी। उसके प्रभाव से कच गुरुजी का पेट फाड़कर निकल आये। फिर उन्होंने गुरुजी को भी जीवित कर दिया। दैत्यों ने जो ब्रह्महत्या की, उसी पाप से उनके राज्य में वर्षा बन्द हो गयी।
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