हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 127 श्लोक 45-65

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 45-65 का हिन्दी अनुवाद


कुम्भाण्ड के वचनों का स्मरण करके तत्काल उन गौओं के स्वरूप को पहचानकर प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ तथा तात्त्विक अर्थनीति में विशारद भगवान श्रीकृष्ण ने बाणासुर की उन गौओं को देखा और मन-ही-मन उन्हें ले लेने का विचार किया। फिर सम्पूर्ण जगत के आदिकारण वे अविनाशी प्रभु गरुड़ पर बैठे-बैठे ही बोले। श्रीकृष्ण ने कहा- 'विनतानन्दन! जहाँ बाणासुर की गौएँ हैं वहीं चलो। कहते हैं, उन गौओं का दूध पीकर मनुष्य अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। सत्यभामा ने मुझसे कहा था कि ‘मेरे लिये बाणासुर की गौएँ ले आइयेगा, जिनका दूध पीकर व महान असुर कभी बूढ़े नहीं होते हैं। तथा बूढ़े प्राणी भी वृद्धावस्था को त्यागकर अजर हो जाते हैं। नाथ! आपका कल्याण हो, यदि धर्म का लोप न होता हो तो उन गौओं को ले आइयेगा। अथवा यदि कार्य में बाधा पड़ती हो तो उन गौओं की ओर ध्यान न दीजियेगा।’ इस प्रकार सत्यभामा ने मुझसे कहा था। वे बाणासुर की गौएँ ये ही हैं, इन्हें मैंने पहचान लिया।

गरुड़ बोले- प्रभो! ये ही तो वे गौएँ दिखायी दे रही हैं, परंतु मुझे देखकर सहसा सब-की-सब समुद्र में समायी जा रही हैं, अत: यहाँ जो कार्य करना उचित हो, वह कीजिये। ऐसा कहकर गरुड़ ने अपने पंखों की हवा से सहसा समुद्र को विक्षुब्ध करते हुए वरुण के निवास स्थान में प्रवेश किया। गरुड़ को वेगपूर्वक वरुणालय में आया हुआ देख वरुण के समस्त सैनिकगण तत्काल विभ्रान्त एवं विचलित हो उठे। तत्पश्चात वरुण की अत्यन्त दुर्जय सेना नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो भगवान श्रीकृष्ण के सामने चढ़ आयी। उस समय वरुण के उन सैनिकों के साथ गरुड़ का बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध में आक्रमण करने वाले उन सहस्रों वरुण सैनिकों की उस अजेय सेना को महात्मा केशव ने मार भगाया। तब वे भागे हुए सैनिक उस वरुणालय में ही जा घुसे, इसके बाद वरुण के छाछठ हजार रथी सैनिक चमकीले अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न हो रणक्षेत्र में आकर युद्ध करने लगे। बलदेव, श्रीकृष्ण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और गरुड़- इन सभी बलवान शूरवीरों ने नाना प्रकार के तीखे बाण समूहों द्वारा वरुण की उस रथ सेना को सब और से मार भगाया।

अनायास ही महान कर्म करने वाले श्रीकृष्ण के द्वारा अपनी सेना को भगायी गयी देख वरुण देवता अत्यन्त कुपित हो उठे और घर से निकलकर उस स्थान पर आये जहाँ श्रीकृष्ण विराजमान थे। उस समय बहुत से ऋषि, देवता, गन्धर्व तथा अप्सराओं के समुदाय अनेक प्रकार से उनकी स्तुति कर रहे थे। इस रूप में वरुणदेव का वहाँ दर्शन हुआ। उनके मस्तक पर सुन्दर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे जल की बूँदें झर रही थीं। वे एक श्रेष्ठ धनुष हाथ में लेकर खड़े थे। जल के स्वामी वरुण अत्यन्त क्रोध में भरकर अपने पुत्रों-पौत्रों तथा सैनिकों के साथ आकर अपने विशाल धनुष को फैलाये हुए इस तरह खड़े थे, मानो युद्ध के लिये ललकार रहे हों। वरुण ने पहले तो शंख बजाया, फिर क्रोध मे भरकर श्रीकृष्ण पर उसी तरह धावा किया, जैसे रुद्रदेव ने भगवान विष्णु पर आक्रमण किया हो। उन्‍होंने कुपित हो अपने बाणों के जाल से श्रीकृष्ण को ढक दिया। तब महाबली जनार्दन ने पांचजन्य शंख बजाकर अपने बाण समूहों से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित कर दिया। रणभूमि में उन निर्मल बाण समूहों से पीड़ित होने पर भी मुसकराते हुए-से वरुण श्रीकृष्ण के साथ युद्ध करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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