हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 66-81 का हिन्दी अनुवाद
योद्धाओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! आग आग पर अपना पराक्रम प्रकट नहीं करती है, अत: क्रोध को त्याग दीजिये। आप पर मेरी प्रभुता नहीं चल सकेगी, क्योंकि आप जगत के आदि कारण हैं। पूर्वकाल में आपने जिस प्रकृति (माया) की सृष्टि की थी, वह महत्तत्त्व आदि विकारों के रूप में परिणत होने वाली है, इसलिये परिणामधर्मिणी है। वह आप से पूर्वधर्म (जन्मभाव)[2] का आश्रय लेकर अर्थात आप से ही उत्पन्न होकर जगत के कारण रूप से विद्यमान है। उक्त प्रकृति के द्वारा आपने ही पहले इस आग्नेय, वैष्णव एवं सौम्य अस्त्र की सृष्टि की है और आप से ही इस सम्पूर्ण जगत की रचना हुई है, वे जगत्स्रष्टा परमात्मा होकर आप मेरे प्रति कैसा बर्ताव करते हैं। महद्युते! आप अजेय, सनातन देवता, स्वयम्भू और भूतभावन हैं, अक्षर और क्षर तथा भाव और अभाव आप ही के स्वरूप हैं। निष्पाप श्रीकृष्ण! आप मेरी रक्षा कीजिये! मैं आपके द्वारा संरक्षण पाने के योग्य हूँ, आपको नमस्कार है। आप समस्त लोकों के आदिकर्ता हैं। आपने ही इस दृश्य जगत का विस्तार किया है। महादेव! जैसे बालक खिलौनों से खेलता है, उसी प्रकार आप इस जगत के द्वारा क्रीड़ा करते हैं, आप ही इस जगत की प्रकृति अर्थात कारण हैं, न तो मैं आप से द्वेष रखता हूँ और न आप पर दोषारोपण ही करता हूँ। महातेजस्वी पुरुषोत्तम! अहंकार आदि विकारों में जो प्रकृति (लोभ, द्वेषादि रूप पूर्ववासना) हैं, उसके विकारों (चोरी, हिंसा आदि दोषों) की शान्ति के लिये आप दुष्टों का दमन आदि कार्य करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान विष्णु के जितने अवतार हैं, उन सब में मत्स्यावतार प्रथम माना गया है। यह अवतार जल में हुआ था और जल के अधिष्ठाता वरुणदेव इसके पहले से विद्यमान थे, अत: ये सभी अवतारों से ज्येष्ठ सिद्ध होते हैं। वामन-अवतार के समय भगवान इन्द्र-वरुण आदि देवताओं के छोटे भाई बने, इसलिये भी वरुण की ज्येष्ठता सिद्ध होती है।
- ↑ जन्म, सत्ता, परिणाम, वृद्धि, क्षय और नाश- ये छ: भाविकार प्राकृत शरीर के धर्म हैं। इनमें पहला भाव या धर्म ‘जन्म’ है, इसलिये यहाँ ‘पूर्वधर्म’ का अर्थ ‘जन्म’ किया गया है। नीलकण्ठ ने ऐसा ही माना है।
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