हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 127 श्लोक 22-44

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 22-44 का हिन्दी अनुवाद


नारद जी की यह बात सुनकर सब लोग हँस पड़े। फिर श्रीकृष्ण ने कहा- ‘भगवन! शीघ्र ही अनिरुद्ध और उषा का विवाह कीजिये, विलम्ब न हो’। तात! इसी बीच में वैवाहिक सामग्री का संग्रह करके मंत्री कुम्भाण्ड उपस्थित हुए और श्रीकृष्ण को नमस्कार करके बोले। कुम्भाण्ड ने कहा- कृष्ण! कृष्ण! महाबाहो! आप मुझे अभय प्रदान करें। देवेश्वर! मैं आपकी शरण में आया हूँ, प्रसन्न होइये! आपके सामने ये मेरे दोनों हाथ जुड़े हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण नारद जी से कुम्भाण्ड के विषय मे सब कुछ सुन चुके थे, उनकी उस बात का स्मरण करके वे महात्मा कुम्भाण्ड को अभय देते हुए बोले- 'उत्तम व्रत का पालन करने वाले मन्त्रिप्रवर कुम्भाण्ड! तुमने जो सत्कर्म किया है, उसे मैं जानता हूँ। अब तुम्हीं यहाँ के राष्ट्रपति बनो और अपने बन्धु-बान्धवों सहित यहाँ परम सुखी तथा संतुष्ट रहो। मैंने तुम्हें यह राज्य अर्पित कर दिया, अब तुम मेरा आश्रय लेकर चिरजीवी बने रहो।' इस प्रकार महात्मा कुम्भाण्ड को राज्य देकर श्रीकृष्ण ने वहाँ अनिरुद्ध का विवाह संस्कार सम्पन्न किया। उस समय भगवान अग्रिदेव वहाँ स्वयं उपस्थित हुए थे। अनिरुद्ध का विवाह शुभ नक्षत्र में सम्पन्न हुआ। उसमें मांगलिक कृत्य करने के लिये अप्सराएँ उपस्थित हुई थीं। वहाँ अपनी पत्नी के साथ अनिरुद्ध ने स्नान करके करके अलंकार धारण किया। तत्पश्चात मंगलसूचक स्निग्‍ध वचनों द्वारा गन्धर्वगण गान करने लगे और अप्सराएँ उस विवाह की शोभा बढ़ाती हुई नाचने लगीं। तदनन्तर अनिरुद्ध का विवाह संस्कार सम्पन्न कराकर समस्त देवताओं से घिरे हुए परमबुद्धिमान शत्रुसूदन एवं परपुरंजय भगवान श्रीकृष्ण ने देववन्दित वरदायक रुद्रदेव की आज्ञा ले वहाँ से द्वारका जाने का विचार किया। शत्रुसूदन श्रीकृष्ण को द्वारका जाने के लिये उद्यत जान कुम्भाण्ड ने हाथ जोड़कर उन मधुसूदन से कहा- ‘माधव! बाणासुर की गौएँ वरुण के हाथ में हैं। जिनके थनों से अमृत के समान गुणकारक दूध बहता रहता है। उस दूध को पीकर मनुष्य अत्यन्त बलशाली और दुर्जय हो जाता है।

कुम्भाण्ड के ऐसा कहने पर भगवान श्रीहरि को उस समय बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने जाने का विचार एवं दृढ़ निश्चय कर लिया। तदनन्तर श्रीकृष्ण को बधाई देकर ब्रह्मलोकवासियों से घिरे हुए भगवान ब्रह्मा ब्रह्मलोक को चले गये। मरुद्रणों के साथ इन्द्र द्वारकापुरी की ओर चल दिये। जिस ओर श्रीकृष्ण जा रहे थे, उधर ही वे सब लोग उनकी विजय चाहते हुए यात्रा करने लगे। साक्षात पार्वती देवी ने उषा को विदा किया। सखियों से घिरी हुई उषा मयूर जुते हुए रथ से द्वारका की ओर चली। तत्पश्चात बलभद्र, श्रीकृष्ण, महाबली प्रद्युम्न और पराक्रमी अनिरुद्ध ये चारों गरुड़ पर आरूढ़ हुए। पक्षियों में श्रेष्ठ तेजस्वी गरुड़ वृक्षगणों को उखाड़ते और पृथ्वी को कम्पित करते हुए वहाँ से प्रस्थित हुए। गरुड़ के प्रस्थान करने पर सम्पूर्ण दिशाएँ व्याकुल हो गयीं, आकाश धूल से आच्छन्न-सा हो गया अैर सूर्यदेव की किरणें मन्द पड़ गयीं। तत्पश्चात वे सभी पुरुषप्रवर वीर अपने विशाल मार्ग पर बढ़ने लगे। वे सब महाबली बाणासुर को परास्त करके गरुड़ पर आरूढ़ हो द्वारका की ओर जा रहे थे। आकाश में पहुँचकर वे सब लोग पश्चिम दिशा की ओर बढ़ने लगे। उस समय उन महात्माओं ने अनेक प्रकार के रूप-रंग वाली सहस्रों दिव्य गौओं को देखा, जो दिव्य दुग्‍ध प्रदान करने वाली थीं। वे सब-की-सब समुद्र तटवर्ती वन में विचर रही थीं ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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