हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 126 श्लोक 38-60

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: षड्-विंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 38-60 का हिन्दी अनुवाद


उस रणभूमि में अप्रतिम बलशाली यदुकुलतिलक श्रीकृष्ण को गरुड़ पर आरूढ़ होकर आते देख बाणासुर ने अपने सामने उपस्थित हुए उन वेगशाली भगवान वासुदेव से कुपित होकर कहा। बाणासुर बोला- अरे! खड़े रहो! खड़े रहो! आज तुम जीवित नहीं लौट सकोगे और न द्वारका तथा द्वारकावासी सुहृदों को ही देख सकोगे। माधव! आज समरभूमि में मेरे द्वारा पराजित हो तुम काल से प्रेरित एवं मरणासन्न होकर वृक्षों के अग्रभाग को सुनहरे रंग का देखोगे। गरुड़ध्वज! तुम्हारे तो आठ ही भुजाएँ हैं, रणभूमि में तुम मुझ सहस्रबाहु के साथ भिड़कर कैसे युद्ध करोगे। आज युद्ध में भाई-बन्धुओं सहित तुम मेरे द्वारा पराजित हो शोणितपुर में मारे जाकर द्वारका का स्मरण करोगे। देखना, भाँति-भाँति के आयुधों से युक्त और नाना प्रकार के बाजूबंदों से विभूषित ये मेरी सहस्र भुजाएँ आज किस तरह करोड़ों भुजाओं के समान हो जाती हैं। गर्जना करते हुए उस दैत्यराज के मुख से वे प्रवाहपूर्ण महाभयंकर वाक्य समूह उसी तरह निकल रहे थे, जैसे प्रचण्ड पवन की प्रेरणा पाकर समुद्र से जल के प्रवाह और उत्ताल तरंगें उठती रहती हैं ।

उसके दोनों नेत्र रोष से व्याप्त हो उठे। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश में सम्पूर्ण जगत को दग्‍ध कर डालने की इच्छा लेकर महान सूर्य उदित हुआ हो। बाणासुर का वह अत्यन्त ओजस्वी वचन सुनकर देवर्षि नारद आकाश को विदीर्ण करते हुए से बड़े जोर-जोर से अट्टहास करने लगे। वे मुनि योगपट्ट का आश्रय लेकर युद्ध देखने की इच्छा से आकाश में ठहरे हुए थे। वे अपने नेत्रों को कौतूहल से उत्फुल्ल (चकित) करते हुए वहाँ सब ओर घूमते थे। श्रीकृष्ण बोले- बाण! तू मोहवश क्यों गर्जना कर रहा है? शूरवीर इस तरह गर्जते नही हैं। आ! आ!! रणभूमि में युद्ध कर। तेरी इस व्यर्थ गर्जना से क्या लाभ है? दितिनन्दन! यदि बातों से ही युद्धों में सफलता मिल जाय तो सदा तू ही विजयी हुआ करे, क्योंकि तू बहुत अंट-संट बातें बक रहा है। बाण! आ! आ!! मुझे युद्ध में जीत ले अथवा मेरे द्वारा पराजित हो तू ही पृथ्वी नीचे मुँह किये दीन-हीन हो। चिरकाल के लिये गिरकर असुरों के साथ सो जायेगा।

ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने उस समय मर्म स्थानों का भेदन करने वाले शीघ्रगामी अमोघ महाबाणों द्वारा बाणासुर को घायल कर दिया। श्रीकृष्ण के मर्मभेदी बाणों द्वारा क्षत-विक्षत हुए बाणासुर ने मुसकराकर उन्हें भी बाणों की वर्षा से ढक दिया। उस अत्यन्त भयानक युद्ध में उन प्रज्वलित बाणों से बिंधे हुए श्रीकृष्ण को बाणासुर ने फिर परिघ, खड्ग, गदा, तोमर, शक्ति, मूसल और पट्टिशों से आच्छादित कर दिया। अपनी सहस्र भुजाओं से घमंड में भरा हुआ दैत्यप्रवर बाणासुर लीलापूर्वक द्विबाहु बने हुए श्रीकृष्ण के साथ समरांगण में युद्ध करने लगा। श्रीकृष्ण की फुर्ती से बलिपुत्र बाणासुर को बड़ा रोष हुआ। उस दैत्य ने तपस्या द्वारा निर्मित एक परमदिव्य एवं महान अस्त्र को, जो ब्रह्मा जी के द्वारा रचा गया था, युद्ध में कभी प्रतिहत नहीं होता था और समस्त शत्रुओं का विनाश करने में समर्थ था, श्रीकृष्ण पर छोड़ दिया। उस अस्त्र के छूटते ही सम्पूर्ण दिशाओं का मण्डल अन्धकार से आच्छन्न हो गया। सब ओर अत्यन्त भयंकर सहस्रों (अपशकुन) प्रकट होने लगे। वहाँ का सारा जगत अन्धकार से ढक जाने के कारण कुछ भी ज्ञात नहीं होता था। उस समय समस्त दानव ‘साधु! साधु!! कहकर बाणासुर की प्रशंसा करने लगे और देवताओं के मुख से निकली हुई वाणी- ‘हाय! हाय!! धिक्कार है।’ इत्यादि रूप से सुनायी देने लगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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