हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 119 श्लोक 61-80

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 61-80 का हिन्दी अनुवाद

‘कार्यसाधन में कुशल सखि! इस कार्य को गुप्त कैसे रखा जाय? गुप्त रखने पर ही कल्याण हो सकता है। इसे प्रकाशित कर देने पर प्राणों पर संकट आ सकता है’। तब चित्रलेखा बोली- ‘सखि! मेरा निश्चय सुनो! पुरुषार्थ द्वारा किये गये कार्य को दैव क्षण भर में नष्ट कर देता है। यदि पार्वती देवी का कृपा प्रसाद तुम्हारे अनुकूल होगा तो आज माया द्वारा छिपाकर किये गये इस गुप्त कार्य को कोई नहीं जान सकेगा।' सखी के ऐसा करने पर उषा की चित्तवृत्ति स्थिर हुई। वह बोली, ‘तुम्हारा कहना ठीक है’, फिर उसने अनिरुद्ध से कहा- ‘सौभाग्‍य की बात है कि सपने में आया हुआ वह चोर आज सुन्दर पति के रूप में प्रत्यक्ष दिखायी देता है, जिसके लिये हम सब लोग खिन्न हो रही थीं, दुर्लभ प्रियतम की आकांक्षा रखने के कारण भारी चिन्ता में पड़ गयी थीं। महाबाहो! आपके लिये सर्वत्र कुशल तो है न? स्त्रियों का हृदय कोमल होता है, इसलिये मैं आपका कुशल-समाचार पूछ रही हूँ।' उषा का वह अर्थ भरा स्नेहयुक्त वचन सुनकर यदुकुल सिंह अनिरुद्ध भी सुन्दर अक्षरों से युक्त बात बोले। पहले उन्होंने अपने हाथ से आनन्द के आँसुओं से भरे हुए नेत्र वाली उषा के आँसू पोंछे, फिर हँसकर मुस्‍कराते हुए वे ऐसी बात बोले, जो चित्त को चुराये लेती थी- 'वरारोहे! तुम्हारे प्रसाद से मेरे लिये सर्वत्र कुशल है। बहुत कम बोलने वाली देवि! मैं तुम्हें यह प्रिय संवाद निवेदन करता हूँ। शुभदर्शने! यह देश मेरे लिये पहले का देखा हुआ नहीं था, केवल एक बार रात को सपने में कन्याओं के अन्त:पुर में इसे जैसा देखा था, वैसा ही आज भी यह दिखायी देता है।

भीरु! तुम्हारे प्रसाद से ही मेरा इस प्रकार यहाँ आगमन हुआ है। रुद्रपत्नी उमादेवी की बात कभी मिथ्या नहीं होगी। भामिनि! पार्वती देवी का तुम पर बड़ा प्रेम है- यह जानकर तुम्हारा प्रिय करने के लिये ही मैं आज यहाँ आया हूँ। मुझ पर प्रसन्न होओ, मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ।' अनिरुद्ध के ऐसा कहने पर सुन्दर अलंकारों से अलंकृत हुई उषा अपने प्रियतम के साथ संयुक्त हो तुरंत ही गुप्त स्थान में जा पहुँची। उस समय वह भयभीत-सी जान पड़ती थी। तदनन्तर वे दोनों गान्धर्व विवाह के नियम से परस्पर दाम्पत्य भाव स्वीकार करके एक-दूसरे से मिले, जैसे चकवे दिन में समागम करते हैं, उसी प्रकार उन दोनों ने परस्पर रमण किया। दिव्य वस्त्र और अनुलेपन धारण करने वाली श्रेष्ठ नारी उषा अपने प्रियतम पति अनिरुद्ध से मिलकर बहुत ही प्रसन्न हुई। अनिरुद्ध के साथ रमण करती हुई अपनी पुत्री के विषय में उस समय बाणासुर को कोई समाचार ज्ञात नहीं हुआ। परंतु बाणासुर के द्वारा नियुक्त हुए जो गुप्त पहरेदार थे, उन्होंने उसी क्षण यह जान लिया कि दिव्य माल्य, दिव्य वस्त्र, दिव्य हार और दिव्य अनुलेपन धारण करने वाले यदुकुलतिलक अनिरुद्ध ने उषा के साथ समागम कि है। तब उन गुप्तचरों ने कन्या का अपराध जिस तरह देखा था, वह सब शीघ्र ही बाणासुर को निवेदन कर दिया। तब भयानक कर्म करने वाले शत्रुघाती बलिपुत्र वीर बाणासुर ने किंकरों की सेना को आदेश दिया- 'सैनिकों! तुम सब लोग एक साथ जाओ और उस दुर्बुद्धि मनुष्य को मार डालो, जिसने अपने हृदय को तो दूषित कर ही लिया था, हमारे कुल के सदाचार को भी कलंकित कर दिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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