हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 119 श्लोक 40-60

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 40-60 का हिन्दी अनुवाद

सौम्य! वह आपके दर्शन की बाट जोहती हुई काम के अधीन हो बड़ा कष्ट पा रही है। वीर! यदि आप उसके पास जाये और मिले, तभी वह जीवन धारण कर सकेगी। यदि आपका दर्शन उसे नहीं मिला तो उसकी मृत्यु निश्चित है, इसमें कोई संशय नहीं है। यदुनन्दन! यदि आपके हृदय में सहस्रों नारियों ने स्थान बना लिया हो तो भी आपको चाहने वाली एक अनुरक्त स्त्री का हाथ आपको अवश्य पकड़ना चाहिये। देवी पार्वती ने वरदान देते समय आप ही को उसका मनोवान्छित पति प्रदान किया है, मैंने उसे आपका चित्रपट दिया है। उसी में आपके चिह्न का अवलोकन करके वह जी रही है। यदुश्रेष्ठ! आप उसका मनोरथ पूर्ण करने के लिये दयालु बनें। यदुनन्दन! उषा आपके चरणों में सिर रखकर प्रणाम करती है। हम सखियाँ भी आपको माथ नवाती हैं। आप उषा की उत्पत्ति सुन लें। उसका कुल और शील जैसा है, उसे भी जान लें, उसकी आकृति, स्वभाव और पिता का भी परिचय आपको देती हूँ। विरोचनकुमार बलि का वीर पुत्र बाण नामक महान असुर शोणितपुर का राजा है। उसकी पुत्री उषा आपको पति बनाना चाहती है। उसका चित सदा आपके ही चिन्तन में लगा हरता है, उसका जीवन भी आप ही हैं।

देवी पार्वती ने आपको ही उसके लिये मन के अनुरूप पति दिया है, इसमें संशय नहीं। सुन्दर कटि प्रदेश वाली शुभलक्षणा उषा आपके समागम की आशा लेकर ही प्राणों को धारण करती है।' चित्रलेखा की बात सुनकर अनिरुद्ध ने उससे इस प्रकार कहा- 'शोभने! मैंने उसे सपने में देखा है। उसका परिणाम क्या हुआ? यह मुझसे सुनो। मैं दिन-रात उसके रूप, कान्ति, मति, संयोग सुख और रोदन आदि सभी बातों का इसी तरह चिन्तन करता हुआ मोह में पड़ा रहता हूँ। चित्रलेखे! यदि मैं तुम्हारे अनुग्रह का पात्र हूँ और यदि तुम मुझ से मैत्री चाहती हो तो मुझे अपने साथ ले चलो। मैं प्राण प्यारी उषा को देखना चाहता हूँ। मैं कामजनित ताप से संतप्त हूँ, अत: प्रियतमा के संगम की कामना से मैंने तुम्हारे सामने यह अंजलि बांध रखी है, मेरे स्वप्र को सत्य कर दिखाओ।' अनिरुद्ध की यह बात सुनकर श्रेष्ठ अप्सरा चित्रलेखा मन-ही-मन यह कहने लगी कि आज मेरा क्लेश उठाना सफल हो गया। मेरी सखी ने जो वस्तु माँगी थी, वह मुझे मिल गयी।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! अनिरुद्ध का मनोरथ जानकर भामिनी चित्रलेखा बहुत प्रसन्न हुई और बोली, 'अच्छा ऐसी ही करूँगी।' अट्टालिका में स्त्रियों के बीच में बैठे हुए रणदुर्मद प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध को अदृष्य करके उन्हें साथ ले चित्रलेखा आकाश में उड़ चली। वह मन के समान वेगशालिनी थी। उसने सिद्धों और चारणों से सेवित आकाश मार्ग में आकर सहसा शोणितपुर में प्रवेश किया। वह कामरूपिणी अप्सरा अनिरुद्ध को माया से अदृश्य करके जहाँ महाभागा उषा थी, वहाँ गयी। वहाँ उसने उषा को एकान्त में विचित्र आभूषणों से विभूषित तथा विचित्र वस्त्रधारी देवतुल्य रूपवाले वीर अनिरुद्ध का दर्शन कराया। वहाँ अट्टालिका में सखियों के समीप बैठी हुई उषा अनिरुद्ध को देखकर चकित हो उठी। उसने तत्काल उन्हें अपने महल के भीतर प्रवेश कराया। प्रियतम का दर्शन करके उषा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। स्वार्थ साधन में कुशल उषा ने अट्टालिका में ही स्थित हो अर्घ्य निवेदन करके यदुकुलनन्दन अनिरुद्ध का पूजन किया। फिर चित्रलेखा को हृदय से लगाकर प्रिय वचनों के द्वारा उसे संतुष्ट किया। इसके बाद कामिनी उषा भय से व्याकुल हो तुरंत ही चित्रलेखा से बोली-

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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