हरिवंश पुराण विष्णु पर्व अध्याय 119 श्लोक 20-39

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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-39 का हिन्दी अनुवाद

महर्षि नारद के ऐसा कहने पर मन के समान वेग वाली चित्रलेखा ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। इसके बाद ऋषियों में श्रेष्ठ महात्मा नारद को प्रणाम करके वह आकाश मार्ग से अनिरुद्ध के घर की ओर चली। द्वारका के मध्य भाग में कामावतार प्रद्युम्न का सुन्दर भवन था और उसी के समीप अनिरुद्ध का महल था, जिसमें चित्रलेखा ने प्रवेश किया। उस भवन में सोने की वेदियाँ बनी थीं और सोने के ही खम्भे लगे थे। उसके फाटक सोने और वैदूर्यमणि से बनाये गये थे। वहाँ फूल-मालाओं की बंदनवारें लगी थीं। भरे हुए कलश उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। एक ही विशालकाष्ठ या पाषाण पर बिना खम्भे के बने हुए प्रासादों के कारण वह भवन मोर के कण्डभाग की भाँति शोभा पाता था। उस भवन में मणि और मूँगे इस प्रकार जड़े गये थे, मानों उन्हीं के बने हुए बिछौने बिछे हुए हों। वहाँ देव गन्धर्वों के संगीत की ध्वनि गूँज रही थी।

चित्रलेखा ने उस भवन को देखा, जहाँ प्रद्युम्‍नकुमार अनिरुद्ध सुखपूर्वक निवास करते थे। उनके उस विशाल भवन में सहसा प्रवेश करके श्रेष्ठ अप्सरा चित्रलेखा ने सुन्दरी नारियों के मध्य भाग में अनिरुद्ध को देखा, मानो ताराओं के बीच तारापति चन्द्रमा उदित हुए हों। क्रीड़ाविहार के स्थान में इधर-उधर बहुत-सी सुन्दरियाँ उनकी सेवा में लगी थीं। वे मधुर मधु का पान करते हुए उत्कृष्ट शोभा से प्रकाशित हो रहे थे। धनाध्यक्ष कुबेर के समान वे एक श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान थे। उनके सामने समताल में वाद्य बज रहा था और मधुर स्वर में गान हो रहा था। किंतु उस वाद्य और गान में उनका मन नहीं लगता था। वे उसी विषय (उषा के समागम) का चिन्तन कर रहे थे। सर्वगुणसम्पन्न सुन्दरी स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ नृत्य कर रही थीं। परंतु चित्रलेखा ने देखा, अनिरुद्ध के मन को कहीं भी संतोष नहीं प्राप्त होता है। ये न तो भोगों के साथ रमते हैं और न मधु का ही सेवन करते हैं। निश्चय ही इनके हृदय में भी वही स्वप्र चक्कर लगा रहा है। वह अपनी बुद्धि से वहीं इस निश्चय पर पहुँच गयी और उसका भय दूर हो गया।

श्रेष्ठ एवं सुन्दरी स्त्रियों के बीच में इन्द्रध्वज के समान शोभा पाने वाले अनिरुद्ध को देखकर मनस्विनी चित्रलेखा मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगी। ‘यह कार्य कैसे करना चाहिये, किस तरह करने से कल्‍याण प्राप्त होता’ इस तरह विचार करके सुन्दर नेत्रों वाली यशस्विनी चित्रलेख अदृश्य होकर तामसी विद्या के द्वारा अनिरुद्ध के सिवा अन्य सबको आच्छादित कर दिया। फिर आकाश से ही शीघ्र आकर वह महल की छत पर खड़ी हो गयी और प्रद्युम्नकुमार अनिरुद्ध से मधुर वाणी में यह स्नेहयुक्त वचन बोली। पहले दिव्य दृष्टि देकर उसने उन्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया, फिर एकान्त प्रदेश में उनसे इस प्रकार कहना आरम्भ किया- वीर यदुनन्दन! आपके लिये सर्वत्र कुशल तो है न? आपका दिन और प्रदोषकाल सुख से बीतता है न? महाबाहु रतिकुमार! मैं तुम्हारे लिये एक सूचना लायी हूँ, तुम इसे सुना। मैं अपनी सखी उषा की बात ठीक-ठीक बताऊँगी, जिसको आपने सपने में देखा और अपनी पत्नी बना लिया। वह आपको ही अपने हृदय में धारण करती है। उषा के भेजने पर ही मैं यहाँ आयी हूँ। वह बेचारी बार-बार रोती, अँगड़ाई लेती और लम्बी साँस खींचती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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