महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 42 श्लोक 18-27

द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)

Prev.png

महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 18-27 का हिन्दी अनुवाद

श्रीमद्भगवद्गीता अ‍ध्याय 18


सम्बन्ध- पूर्व श्लोक में कृष्ण ने अर्जुन को संन्यास (ज्ञानयोग) का तत्त्व समझाने के लिये आत्मा के अर्कतापन का प्रतिपादन किया था। अब वे उसके अनुसार कर्म के अंग-प्रत्यंगों को भलीभाँति समझाने के लिये कर्म-प्रेरणा, कर्म-संग्रह और उनके सात्त्विक आदि भेदों का प्रतिवादन अर्जुन से करते हैं। और कहते हैं -हे अर्जुन! ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय- यह तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा[1] है और कर्ता, करण तथा क्रिया-यह तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है।[2] गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों भेद से तीन-तीन प्रकार के ही कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भलीभाँति सुन।[3] जिस ज्ञान से मनुष्य पृथक्-पृथक् सब भूतों में एक अविनाशी परमात्मा भाव को विभागरहित समभाव से स्थित देखता है, उस ज्ञान को तू सात्त्विक जान।[4] किंतु जो ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण भूतों में भिन्न-भिन्न प्रकार के नाना भावों को अलग-अलग जानता है, उस ज्ञान को तू राजस जान।[5] परन्‍तु जो ज्ञान एक कार्यरूप शरीर में ही सम्पूर्ण के सदृश आसक्त है तथा जो बिना युक्ति वाला, तात्विक अर्थ से रहित और तुच्छ है, वह तामस कहा गया है।[6]

जो कर्म शास्त्रविधि के नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो[7]- वह सात्त्विक कहा जाता है।[8] परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है[9] तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकार युक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है।[10] जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्‍य को न विचार कर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है।[11] जो कर्ता संग रहित, अहंकार के वचन बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है, वह सात्त्विक कहा जाता है।[12] जो कर्ता आसक्ति युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्ध-चोरी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कहा गया है।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. किसी भी पदार्थ के स्वरूप का निश्चय करने वाले को ‘ज्ञाता’ कहते हैं वह जिस वृत्ति के द्वारा वस्तू के स्वरूप का निश्चय करता है, उसका नाम ‘ज्ञान’ है और जिस वस्तु के स्वरूप का निश्चय करता है, उसका नाम ‘ज्ञेय’ है। इन तीनों का सम्बन्ध ही मनुष्य कों कर्म में प्रवृत्त करने वाला है क्‍योंकि जब अधिकारी मनुष्य ज्ञानवृत्ति द्वारा यह निश्चय कर लेता है कि अमुक-अमुक साधनों द्वारा अमुक प्रकार के अमुक सुख की प्राप्ति के लिये अमुक कर्म मुझे करना है, तभी उसकी उस कर्म में प्रवृत्ति होती है।
  2. देखना, सुनना, समझना, स्मरण करना, खाना, पीना आदि समस्त क्रियाओं को करने वाले प्रकृतिस्थ पुरुष को ‘कर्ता’ कहते हैं; उसके जिन मन, बुद्धि और इन्द्रियों के द्वारा उपर्युक्त समस्त क्रियाएं की जाती है, उसको ‘करण’ और उपर्युक्त समस्त क्रियाओं को ‘कर्म’ कहते हैं। इन तीनों के संयोग से ही कर्म का संग्रह होता है, क्‍योंकि जब मनुष्य स्वयंकर्ता बनकर अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा क्रिया करके किसी कर्म को करता है, तभी कर्म बनता है, इसके बिना कोई भी कर्म नही बन सकता। इसी अध्याय के चौदहवें श्लोक में जो कर्म की सिद्धि के अधिष्ठानादि पांच हेतू बतलाये गये हैं, उनमें से अधिष्ठान और दैव को छोड़कर शेष तीनों को ‘कर्म-संग्रह’ नाम दिया गया है।
  3. जिस शास्त्र में सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के सम्बन्ध से समस्त पदार्थों के भिन्न-भिन्न भेदों की गणना की गयी हो, ऐसे शास्त्र का वाचक ‘गुणसंख्याने’ पद है। अतः उनमें बतलाये हुए गुणों के भेद से तीन प्रकार के ज्ञान, कर्म ओर कर्ता को सुनने के लिये कहकर भगवान ने उस शास्त्र को इस विषय में आदर दिया है। ओर कहे जाने वाले उपदेश को ध्यानपूर्वक सुनने के लिये अर्जुन को सावधान किया है।
    ध्यान रहे की ज्ञाता और कर्ता अलग-अलग नहीं है, इस कारण भगवान ने ज्ञाता के भेद अलग नहीं बतलाये हैं तथा करण के भेद बुद्धि के और घृति के नाम से एवं ज्ञेय के भेद सुख के नाम से आगे बतलायेंगे। इस कारण यहाँ पूर्वोक्त छः पदार्थों में से तीन के ही भेद पहले बतलाने का संकेत किया।
  4. जिस प्रकार आकाश-तत्त्व को जानने वाला मनुष्य घड़ा, मकान, गुफा, स्‍वर्ग और पाताल और समस्त वस्तुओं के सहित सम्पूर्ण ब्राह्मण्‍ड में एक ही आकाश तत्त्व को देखता है, वैसे ही लोकदृष्टि भिन्न भिन्न प्रतीत होने वाले समस्त चराचर प्राणियों में गीता के छठे अध्याय के उन्तीसवें और तेरहवें अध्याय के सत्ताईसवें श्लोक में वर्णित सांख्योग के सावन से होने वाले अनुभव के द्वारा एक अद्वितीय अविनाशी निर्विकार ज्ञानस्वरूप परमात्मा भाव को विभागरहित समयाभाव से व्याप्त देखना ही सात्त्विक ज्ञान है।
  5. कीट, पतंगे, पशु, पक्षी, राक्षस, मनुष्य और देवता आदि जितने भी प्राणी है, उन सब में आत्मा को उनके शरीरों की आकृति के भेद से और स्वभाव के भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक और अलग अलग समझना ही राजस ज्ञान है।
  6. जिस विपरित ज्ञान के द्वारा मनुष्य प्रकृति के कार्यरूप शरीर को ही अपना स्वरूप समझ लेता है और दुःख से कर उस क्षणभंगुर नाशवान शरीर में सर्वस्व की भाँति आसक्त रहता है। अर्थात उसके सुख से सुखी एवं उनके दुःख में दुःखी होता है तथा उनके नाश से ही सर्वनाश मानता है, आत्मा को उससे भिन्न या सर्वव्यापी नहीं समझता- वह ज्ञान वास्तव में ज्ञान नहीं है। इसलिये भगवान् इस श्लोक में ‘ज्ञान’ पद का प्रयोग भी नहीं किया है क्‍योंकि वह विपरित ज्ञान वास्तव में अज्ञान ही है।
  7. कर्मों के फलरूप इस लोक और परलोक के जितने भी योग है, उसमें ममता और आसक्ति का अभाव हो जाने के कारण जिसको किंचिन्मात्र भी उन भोगों की आकांशा नहीं रही है, जो किसी भी कर्म से अपना कोई भी स्वार्थ सिद्ध करना नहीं चाहता, जो अपने लिये किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं समझता- ऐसे पुरुष द्वारा होने वाले जो कर्म राग-द्वेष के बिना केवल लोकसंग्रह के लिये होते है- उन कर्मों को ‘बिना राग-द्वेष के किया हुआ कर्म’ कहते हैं।
  8. इसी अध्याय के नवें श्लोक में वर्णित सात्त्विक त्याग से इस सात्त्विक कर्म में यह विशेषता है कि इसमें कर्तापन के अभिमान का और राग-द्वेष का भी अभाव दिखलाया गया है; किंतु नवें श्लोक में कर्मों में आसक्ति और फलेच्छा का त्याग ही बतलाया गया है, कर्तापन के अभाव की बात नहीं कही है, बल्कि कर्तव्य बुद्धि से कर्मों को करने के लिये कहा है। दोनों का ही फल तत्त्व ज्ञान के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति है भेद केवल अनुष्ठान के प्रकाश का है।
  9. सात्त्विक कर्म से राजस कर्म का यह भेद है कि सात्त्विक कर्मों के कर्ता का शरीर में अहंकार नहीं होता और कर्मों में कर्तापन नहीं होता अतः उसे किसी भी क्रिया के करने में किसी प्रकार के परिश्रम या क्लेश का बोध नहीं होता। इसलिये उसके कर्म आयासयुक्त नहीं है किंतु राजस कर्म के कर्ता का शरीर में अहंकार होने के कारण वह शरीर के परिश्रम और दुःखों से स्वयं दुःखी होता है। इस कारण उसे प्रत्येक क्रिया में परिश्रम बोध होता है। इसके सिवा सात्त्विक कर्मों के कर्ता द्वारा केवल शास्त्रदृष्टि या लोकदृष्टि से कर्तव्यरूप में प्राप्त हुए कर्म ही किये जाते हैं। अतः उसके द्वारा कर्मों का विस्तार नहीं होता है; किंतु राजस कर्म का कर्ता आसक्ति और कामना से प्रेरित होकर प्रतिदिन नये-नये कर्मों का आरम्भ करता रहता है, इससे उसके कर्मों का बहुत विस्तार हो गया है। इस कारण यहाँ बहुत परिश्रम वाले कर्मों को राजस बतलाया गया है।
  10. जिस पुरुष में भोगों की कामना और अहंकार दोनों है, उसके द्वारा किये हुए कर्म राजस है- इसमें तो कहना ही क्या है; किंतु इनमें से किसी एक दोष से युक्त पुरुष द्वारा किये हुए कर्म भी राजस ही है।
  11. किसी भी कर्म का आरम्भ करने से पहले अपनी बुद्धि से विचार करके जो यह सोच लेना है कि अमुक कर्म करने से उसका भावी परिणाम अमुक प्रकार से सुख की प्राप्ति या अमुक प्रकार से दुःख की प्राप्ति होगा, यह उसके अनुबन्ध का यानी परिणाम का विचार करना है तथा जो यह सोचना है कि अमुक कर्म में इतना धन व्यय करना पडेगा, इतने बल का प्रयोग करना पडेगा, इतना समय लगेगा, अमुक अंश में धर्म की हानि होगी और अमुक-अमुक प्रकार की दूसरी हानियां होंगी- यह क्षय का यानी हानि का विचार करना है और जो यह सोचना है कि अमुक कर्म के करने से अमुक मनुष्यों को या अन्य प्राणियों को अमुक प्रकार से कितना कष्ट पहुँचेगा, अमुक मनुष्यों का या अन्य प्राणिया का जीवन नष्ट होगा- यह हिंसा का विचार करना है। इसी तरह जो यह सोचना है कि अमुक कर्म करने के लिये इतने सामर्थ्‍य की आवश्यकता है, अतः इसे पूरा करने की सामर्थ्‍य इसमें है या नहीं यह पौरूष का यानी सामर्थ्‍य का विचार करना है। इस तरह परिणाम, हानि, हिंसा और पौरूष-इन चारों का या चारों में से किसी एक का विचार न करके केवल मोह से कर्म का आरम्भ करना ही तामस कर्म हैं।
  12. शास्त्रविहित स्वधर्म पालनरूप किसी भी कर्म के करने में बड़ी से बड़ी विघ्न-बाधाओं के उपस्थित होने पर भी विचलित न होना ‘धैर्य’ है और कर्म सम्पादन में सफलता न प्राप्त होने पर या ऐसा समझकर कि यदि मुझ फल की इच्छा नहीं है तो कर्म करने की क्या आवश्यकता है- किसी भी कर्म से न उकताना, किंतु जैसे कोई सफलता प्राप्त कर चुकने वाला और कर्मफल को चाहने वाला मनुष्य करता है, उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक उसे करने के लिये उत्सुक रहना ‘उत्साह’ है। इन दोनों गुणों से युक्त होर जो मनुष्य न तो किसी भी कर्म के पूर्ण होने में हर्षित होता है और न उसमें विघ्न उपस्थित होने पर शोक ही करता है तथा इसी तरह जिसमें अन्य किसी प्रकार का भी कोई विकार नहीं होता, जो हरेक अवस्था में सदा-सर्वदा सम रहता है- ऐसा समतायुक्त पुरुष ही सात्त्विक कर्ता है।

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः