द्विचत्वारिंश (42) अध्याय: भीष्म पर्व (श्रीमद्भगवद्गीता पर्व)
महाभारत: भीष्म पर्व: द्विचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 28-35 का हिन्दी अनुवाद श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18
हे पार्थ! जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति मनुष्य ध्यानयोग द्वारा, मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, यह धृति सात्त्विकी है।[18] परंतु हे पृथापुत्र अर्जुन! फल की इच्छा वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और कामों को धारण करता है,[19] वह धारणशक्ति राजसी है। हे पार्थ! दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्य जिस धारणशक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुःख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ना अर्थात् धारण किये रहता है,[20] वह धारणशक्ति तामसी है। सम्बन्ध- इस प्रकार सात्त्विक की बुद्धि और घृति का ग्रहण तथा राजसी-तामसी का त्याग करने के लिये बुद्धि और घृति के सात्त्विक आदि तीन-तीन भेद क्रम से बतलाकर अब, जिसके लिये मनुष्य समस्त कर्म करता है, उस सुख के भी सात्त्विक, राजस और तामस इस प्रकार तीन भेद क्रम से बतलाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिसका स्वभाव अत्यन्त कठोर है, जिसमें विनय का अत्यन्त अभाव है, जो सदा ही घमंड में चूर रहता है- अपने सामने दूसरों को कुछ भी नहीं समझता- ऐसे मनुष्य को ‘घमण्डी’ कहते हैं।
- ↑ जो दूसरों को ठगने वाला वञ्चक है, द्वेष को छिपाये रखकर गुप्तभाव से दूसरों का अपकार करने वाला है, मन ही मन दूसरों का अनिष्ट करने के लिये दाव-पेच सोचता रहता है-ऐसे मनुष्य को ‘र्धूत’ कहते हैं।
- ↑ नाना प्रकार के दूसरों की वृत्ति बाधा डालना ही जिसका स्वभाव है- ऐसे मनुष्य को दूसरों की जीविका का नाश करने वाला कहते हैं।
- ↑ जिसका रात-दिन पड़े रहने का स्वभाव है, किसी भी शास्त्रीय या व्यावहारिक कर्तव्य-कर्म में जिसकी प्रवृत्ति और उत्साह नहीं होते, जिसके अन्तःकरण और इन्द्रियों में आलस्य भरा रहता है- वह मनुष्य ‘आलसी’ है।
- ↑ जो किसी कार्य का आरम्भ करके बहुत काल तक उसे पूरा नहीं करता-आज कर लेंगे, कल कर लेंगे, इस प्रकार विचार करते-करते एक रोज में हो जाने वाले कार्य के लिये बहुत समय निकाल देता है और फिर भी उसे पूरा नहीं कर पाता- ऐसे शिथिल प्रकृति वाले मनुष्य को ‘दीर्घसूत्री’ कहते हैं।
- ↑ जिस पुरुष में उपर्युक्त समस्त लक्षण घटते हों या उनमें से कितने ही लक्षण घटते हों, उसे तामस कर्ता समझना चाहिये।
- ↑ ‘बुद्धि’ शब्द यहाँ निश्चय करने की शक्ति विशेष का वाचक है, इस अध्याय के बीसवें, इक्कीसवें और बाईसवें श्लोकों में जिस ज्ञान के तीन भेद बतलाये गये हैं।, वह बुद्धि से उत्पन्न होने वाला ज्ञान यानी बुद्धि की वृत्ति विशेष है। और यह बुद्धि उसका कारण है। अठारहवें श्लोक में ‘ज्ञान’ शब्द कर्म-प्रेरणा के अन्तर्गत आया है और बुद्धि का ग्रहण ‘करण’ के नाम से कर्म संग्रह में किया गया है। यही ज्ञान का और बुद्धि का भेद है। यहाँ कर्म संग्रह में वर्णित करणों के सात्त्विक-राजस-तामस भेदों को भलीभाँति समझाने के लिये प्रधान ‘करण’ बुद्धि के तीन भेद बतलाये ताते हैं।
‘धृति’ शब्द धारण करने की शक्ति विशेष वाचक है यह भी बुद्धि की ही वृत्ति है। मनुष्य किसी भी क्रिया या भाव को इसी शक्ति के द्वारा दृढतापूर्वक धारण करता है। इस कारण वह ‘करण’ के ही अन्तर्गत है। इस अध्याय के छब्बीसवें श्लोक में सात्त्विक कर्ता के लक्षणों में ‘धृति’ शब्द का प्रयोग हुआ है, इससे यह समझने की गुंजाइश हो जाती है। कि ‘धृति’ केवल सात्त्विक ही होती है; किंतु ऐसी बात नहीं है, इसके भी तीन भेद होते हैं- यही बात समझाने के लिये इस प्रकरण में ‘धृति’ के तीन भेद बतलाये गये हैं। - ↑ गृहस्थ-वानप्रस्थादि आश्रमों में रहकर ममता, आसक्ति, अहंकार और फलेच्छा का त्याग करके परमात्मा की प्राप्ति के लिये उसकी उपासना का तथा शास्त्रविहित यज्ञ, दान और तप आदि शुभ कर्मों का, अपने वर्णाश्रमधर्म के अनुसार जीविका के कर्मों का और शरीर सम्बन्धी खान-पान आदि कर्मों का निष्कामभाव से आचरण रूप जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है- वह ‘प्रवृत्तिमार्ग’ है और राजा जनक, अम्बरीष, महर्षि वसिष्ठ और याज्ञवल्क्य आदि की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना हैं।
- ↑ समस्त कर्मों का और भोगों का बाहर-भीतर से सर्वथा त्याग करके, संन्यास-आश्रम में रहकर परमात्मा की प्राप्ति के लिये सब प्रकार की सांसारिक झंझटों से विरक्त होकर अहंता, ममता, और आसक्ति के त्यागपूर्वक शम, दम तितिक्षा आदि साधनों के सहित निरन्तर श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना या केवल भगवान् के भजन, स्मरण, कीर्तन आदि में ही लगे रहना- इस प्रकार जो परमात्मा को प्राप्त करने का मार्ग है, उसका नाम ‘निवृत्तिमार्ग’ है और श्रीसनकादि, नारद जी, ऋषभदेव जी और शुकदेवजी की भाँति उसे ठीक-ठीक समझकर उसके अनुसार चलना ही उसको यथार्थ जानना है।
- ↑ वर्ण, आश्रम, प्रकृति, और परिस्थिति और देश काल की अपेक्षा से जिसके लिये जिस समय जो कर्म करना उचित है, वही उसके लिये ‘कर्तव्य’ है। और जिस समय जिस लिये जिस कर्म का त्याग उचित है, वही उसके लिये ‘अकर्तव्य’ है, इन दोनों को भलीभाँति समझ लेना-अर्थात् किसी भी कार्य के सामने आने पर यह मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य, इस बात का यर्थाथ निर्णय कर लेना ही कर्तव्य और कर्तव्य को यथार्थ जानना है।
- ↑ किसी दुःखप्रद वस्तु या घटना के उपस्थित हो जाने पर उसकी सम्भावना होने से मनुष्य के अन्तःकरण में जो एक आकुलताभरी कम्पवृत्ति होती है, उसे ‘भय’ कहते हैं। और इससे विपरित जो भय के अभाव की वृत्ति है, उसे ‘अभय’ कहते हैं। इन दोनों के तत्त्वों को भलीभाँति समझकर निभर्य हो जाना ही भय ओर अभय इन दोनों को यथार्थ जानना है।
- ↑ शुभाशुभ कर्मों के सम्बन्ध से जो जीव को अनादि काल से निरन्तर परवश होकर जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकना पड़ रहा है, वही ‘बन्धन’ है और सत्संग के प्रभाव से कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग आदि साधनों में से किसी साधन के द्वारा भगवत्कृपा से समस्त शुभाशुभ कर्मबन्धनों को कट जाना और जीव का भगवान् को प्राप्त हो जाना ही ‘मोक्ष’ है।
- ↑ अहिंसा, सत्य, दशा, शांति, ब्रह्मचर्य, शम, दम, तितिक्षा, तथा यज्ञ, दान, तप एवं अध्ययन, प्रजापालन, कृषि, पशुपालन और सेवा आदि जितने भी वर्णाश्रम के अनुसार शास्त्रविहित शुभकर्म हैं- जिन आचरणों का फल शास्त्रों में इस लोक और परलोक के सुख-भोग बतलाया गया है- तथा जो दूसरों के हित कर्म हैं, उन सब का नाम ‘धर्म’ है, एवं झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा, दम्भ, अभक्ष्य भक्षण आदि जितने भी पापकर्म है- जिनका फल शास्त्रों में दुःख बतलाया है-उन सबका नाम ‘अधर्म’ है। किस समय किस परिस्थिति में कौन-सा कर्म धर्म है और कौन सा कर्म अधर्म है- इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में बुद्धि का कुण्ठित हो जाना, या संशययुक्त हो जाना आदि उन दोनों का यथार्थ न जानना है।
- ↑ वर्ण, आश्रम, प्रकृति, परिस्थिति तथा देश और काल की अपेक्षा से जिस मनुष्य के लिये जो शास्त्रविहित करने योग्य कर्म है- वह कार्य (कर्तव्य) है और जिसके लिये शास्त्र में जिस कर्म को न करने योग्य-निषिद्ध बतलाया है, बल्कि जिसका न करना ही उचित है- वह अकार्य (अकर्तव्य) है। इस दृष्टि से शास्त्रनिषिद्ध पापकर्म तो सबके लिये अकार्य है ही, किंतु शास्त्रविहित शुभ कर्मों में भी किसी के लिये कोई कर्म कार्य होता है और किसी के लिये कोई अकार्य। जैसे शूद्र के लिये सेवा करना कार्य है और यज्ञ, वेदाध्ययन आदि करना अकार्य है; संन्सासी के लिये विवेक, वैराग्य, शुभ, दमादिका साधन कार्य है और यज्ञ-दानादि का आचरण अकार्य है ब्राह्मण के लिये यज्ञ करना कराना, दान देना-लेना, वेद पढ़ना-पढ़ाना कार्य है और नौकरी करना अकार्य है; वैश्य के लिये कृषि, गोरक्षा और वाणिज्यादि कार्य है और दान लेना आदि अकार्य है। इसी तरह स्वर्गादि की कामना वाले मनुष्य के लिये काम्य-कर्म कार्य है और मुमुक्षु के लिये अकार्य है;विरक्त ब्राह्मण के लिये संन्यास ग्रहण करना कार्य है ओर भोगासक्त के लिये अकार्य है। इससे यह सिद्ध है कि शास्त्रविहित धर्म होने से ही वह सबके लिये कर्तव्य नहीं हो जाता। इस प्रकार धर्म कार्य भी हो सकता है और अकार्य भी। यही धर्म-अधर्म और कार्य-अकार्य का भेद है। किसी भी कर्म के करने का या त्यागने का अवसर आने पर ‘अमुक कर्म मेरे लिये कर्तव्य है या अकर्तव्य’ मुझे कौन-सा कर्म किस प्रकार करना चाहिये और कौन-सा नहीं करना चाहिय’-इसका ठीक-ठीक निर्णय करने में जो बुद्धि का किंकर्तव्यविमूढ हो जाना या संशययुक्त हो जाना है-यही कर्तव्य और अकर्तव्य को यथार्थ न जानना है।
- ↑ जिस बुद्धि से मनुष्य धर्म-अधर्म का और कर्तव्य-अकर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर सकता, जो बुद्धि इसी प्रकार अन्यान्य बातों का भी ठीक-ठीक निर्णय करने में समर्थ नहीं होती, वह रजोगुण के सम्बन्ध से विवेक में अप्रतिष्ठित, विक्षिप्त और अस्थिर रहती है; इसी कारण वह राजसी है।
- ↑ ईश्वरनिंदा, देवनिन्दा, शास्त्रविरोध, माता-पिता-गुरु आदि का अपमान, वर्णश्रम धर्म के प्रतिकूल आचरण, असंतोष, दम्भ, कपट, व्यभिचार, असत्य भाषण, परपीडन, अभक्ष्य भाजन, येयच्छाचार और पर-सत्त्वापहरण आदि निषिद्ध पाप कर्मों को धर्म मान लेना ओर धृति, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, घी, विद्या, सत्य, अक्रोध, ईश्वर पूजन, देवोपासना, शास्त्रसेवन, वर्णाश्रम धर्मानुसार आचरण, माता-पिता आदि गुरुजनों की आज्ञा का पालन, सरलता, ब्रह्मचर्य, सात्त्विक भोजन, अहिंसा और परोपकार आदि शास्त्रविहित पुण्य कर्मों को अधर्म मानना-यही अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानना है।
- ↑ अधर्म को धर्म मान लेने की भाँति ही अकर्तव्य, दुःख को सुख, अनित्य को नित्य, अशुद्ध को शुद्ध और हानि को लाभ मान लेना आदि जितनी भी विपरीत मान्यताएं है, वे सब अन्य पदार्थो को विपरित मान लेने के अन्तर्गत है।
- ↑ किसी भी क्रिया, भाव या वृत्ति को धारण करने की-उसे दृढ़तापूर्वक स्थिर रखने की जो शक्ति विशेष है जिसके द्वारा धारण की हुई कोई भी क्रिया, भावना या वृत्ति विचलित नहीं होती, प्रत्युत चिरकाल तक स्थिर रहती है, उस शक्ति का नाम ‘धृति’ है; परन्तु इसके द्वारा मनुष्य जब तक भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से, नाना विषयों को धारण करता रहता है, तब तक इसका व्यभिचार-दोष नष्ट नहीं होता जब इसके द्वारा मनुष्य अपना एक अटल उद्देश्य स्थिर कर लेता है, उस समय यह ‘अव्यभिचारिणी’ हो जाती है। सात्त्विक धृति का एक ही उद्देश्य होता है-परमात्मा को प्राप्त करना। इसी कारण उसे ‘अव्यभिचारिणी’ कहते हैं। ऐसी धारण शक्ति से परमात्मा को प्राप्त करने के लिये ध्यानयोग द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को अटलरूप से परमात्मा में रोक रखना ही ‘सात्त्विक धृति’ है।
- ↑ आसक्तिपूर्वक धर्म का पालन करना धृति के द्वारा धर्म को धारण करना है, एवं धनादि पदार्थों को और उनके सिद्ध होने वाले भागों को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर अत्यन्त आसक्ति के कारण दृढ़तापूर्वक उनको पकड़े रखना धृति के द्वारा अर्थ और कामों को धारण करना है।
- ↑ निद्रा और तन्द्रा आदि जो मन और इन्द्रियों को तमसाच्छन्न, बाहार क्रिया से रहित और मूढ़ बनाने वाले भाव है, उस सबका नाम ‘निद्रा’ है। धन आदि पदार्थों के नाश की, मृत्यु की, दुःखप्राप्ति की, सुख के नाश अथवा इसी तरह अन्य किसी प्रकार के इष्ट के नाश और अनिष्ट-प्राप्ति की आशंका से अन्तःकरण में जो एक आकुलता और घबराहट-भरी वृत्ति होती है, उसका नाम ‘भय’ है यह शक का स्थूल भाव है। तथा जो धन, जन और बल आदि के कारण होने वाली-विवेक, भविष्य के विचार और दूरदर्शिता से रहित-उन्मत्त वृत्ति है, उसे ‘मद’ कहते हैं इसी का नाम गर्व, घमंड और उन्मत्तता भी है। इस सबको तथा प्रमाद आदि अन्यान्य तामस भावों को जो अन्तःकरण से दूर हटाने की चेष्टा न करने इन्ही में डुबे रहना है, यही धृति के द्वारा इनको न छोड़ना अर्थात् धारण किये रहना है।
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