द्वितीय (2) अध्याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 347- 365 का हिन्दी अनुवाद
इस पर्व में अध्यायों की संख्या बयालीस है। तत्त्वदर्शी व्यास जी ने इसमें एक हजार पाँच सौ छः (1506) श्लोक रखे हैं। इसके बाद मौसल पर्व की सूची सुनो- यह पर्व अत्यन्त दारुण है। इसी में यह बात आयी है कि श्रेष्ठ यदुवंशी वीर क्षार समुद्र के तट पर आपस के युद्ध में अस्त्र-शस्त्रों के स्पर्श मात्र से मारे गये। ब्राह्मणों के शाप ने उन्हें पहले ही पीस डाला था। उन सबने मधुपान के स्थान में जाकर खूब पीया और नशे से होश-हवास खो बैठे। फिर दैव से प्रेरित हो परस्पर संघर्ष करके उन्होंने एरकारूपी वज्र से एक-दूसरे को मार डाला। वहीं सबका संहार करके बलराम और श्रीकृष्ण दोनों भाईयों ने समर्थ होते हुए भी अपने ऊपर आये हुए सर्वसंहारकारी महान काल का उल्लंघन नहीं किया (महर्षियों की वाणी सत्य करने के लिये काल का आदेश स्वेच्छा से अंगीकार कर लिया)। वहीं यह प्रसंग भी है कि नरश्रेष्ठ अर्जुन द्वारका में आये और उसे वृष्णिवंशियों से सूनी देखकर विषाद में डूब गये उस समय उनके मन में बड़ी पीड़ा हुई। उन्होंने अपने मामा नरश्रेष्ठ वसुदेव जी का दाह-संस्कार करके आपानस्थान में जाकर यदुवंश वीरों के विकट विनाश का रोमांचकारी दृश्य देखा। वहाँ से भगवान श्रीकृष्ण, महात्मा बलराम तथा प्रधान वृष्णिवंशी वीरों के शरीरों को लेकर उन्होंने उनका संस्कार सम्पन्न किया। तदनन्तर अर्जुन ने द्वारका के बालक, वृद्ध तथा स्त्रियों को साथ ले वहाँ से प्रस्थान किया। परन्तु उस दुःखदायिनी विपत्ति में उन्होंने अपने गाण्डीव धनुष की अभूतपूर्व पराजय देखी। उनके सभी दिव्यास्त्र उस समय अप्रसन्न से होकर विस्मृत हो गये। वृष्णिकुल की स्त्रियों का देखते-देखते अपहरण हो जाता और अपने प्रभावों का स्थिर न रहना, यह सब देख कर अर्जुन को बड़ा निर्वेद (दुःख) हुआ। फिर उन्होंने व्यास जी के वचनों से प्रेरित हो धर्मराज युधिष्ठिर से मिलकर संन्यास में अभिरुचि दिखायी। इस प्रकार यह सोलहवाँ मौसल पर्व कहा गया है। इसमें तत्त्वज्ञानी व्यास ने गिनकर आठ अध्याय और तीन सौ बीस (320) श्लोक कहे हैं। इसके पश्चात सत्रहवाँ महाप्रस्थानिक पर्व कहा गया है। जिसमें नरश्रेष्ठ पाण्डव अपना राज्य छोड़कर द्रौपदी के साथ महाप्रस्थान के[1] पथ पर आ गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ घर छोड़कर निराहार रहते हुए, स्वेच्छा से मृत्यु का वरण करने के लिये निकल जाना और विभिन्न दिशाओं में भ्रमण करते हुए अन्त में उत्तर दिशा हिमालय की ओर जाना- महाप्रस्थान कहलाता है- पाण्डवों ने ऐसा ही किया।
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