द्वितीय (2) अध्याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 325-346 का हिन्दी अनुवाद
जिसमें कुरुराज युधिष्ठिर गंगानन्दन भीष्म जी से धर्म का निश्चित सिद्धान्त सुनकर प्रकृतिस्थ हुए, यह बात कही गयी है। इसमें धर्म और अर्थ से सम्बन्ध रखने वाले हितकारी आचार-व्यवहार का निरूपण किया गया है। साथ ही नाना प्रकार के दानों के फल भी कहे गये हैं। दान के विशेष पात्र, दान की उत्तम विधि, आचार और उसका विधान, सत्यभाषण की पराकाष्ठा, गौओं और ब्राह्मणों का माहात्म्य, धर्मों का रहस्य तथा देश और काल (तीर्थ और पर्व) की महिमा- ये सब अनेक वृत्तान्त जिसमें वर्णित हैं, वह उत्तम अनुशासन पर्व है इसी में भीष्म को स्वर्ग की प्राप्ति कही गयी है। धर्म का निर्णय करने वाला यह पर्व तेरहवाँ है। इसमें एक सौ छियालीस (146) अध्याय हैं। और पूरे आठ हजार (8000) श्लोक कहे गये हैं। तदनन्तर चौदहवें आश्वमेधिक नामक पर्व की कथा है। जिसमें परम उत्तम योगी संवर्त तथा राजा मरुत्त का उपाख्यान है। युधिष्ठिर को सुवर्ण के खजाने की प्राप्ति और परीक्षित के जन्म का वर्णन है। पहले अश्वत्थामा के अस्त्र की अग्नि से दग्ध हुए बालक परीक्षित का पुनः श्रीकृष्ण के अनुग्रह से जीवित होना कहा गया है। सम्पूर्ण राष्ट्रों में घूमने के लिये छोड़े गये अश्वमेध सम्बन्धी अश्व के पीछे पाण्डुनन्दन अर्जुन के जाने और उन-उन देशों में कुपित राजकुमारों के साथ उनके युद्ध करने का वर्णन है। पुत्रिकाधर्म के अनुसार उत्पन्न हुए चित्रांगदाकुमार बभ्रुवाहन ने युद्ध में अर्जुन को प्राण संकट की स्थिति में डाल दिया था; यह कथा भी अश्वमेध पर्व में ही आयी है। वहीं अश्वमेध महायज्ञ में नकुलोपाख्यान आया है। इस प्रकार यह परम अद्भुत अश्वमेधिक पर्व कहा गया है। इसमें एक सौ तीन अध्याय पढ़े गये हैं। तत्त्वदर्शी व्यास जी ने इस पर्व में तीन हजार तीन सौ बीस (3320) श्लोकों की रचना की है। तदनन्तर आश्रमवासिक नामक पंद्रहवें पर्व का वर्णन है। जिसमें गान्धारी सहित राजा धृतराष्ट्र और विदुर के राज्य छोड़कर वन के आश्रम में जाने का उल्लेख हुआ है। उस समय धृतराष्ट्र को प्रस्थान करते देख सती साध्वी कुन्ती भी गुरुजनों की सेवा में अनुरक्त हो अपने पुत्र का राज्य छोड़कर उन्हीं के पीछे-पीछे चली गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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