महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 366-390

द्वितीय (2) अध्‍याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 366-390 का हिन्दी अनुवाद


उस यात्रा में उन्होंने लाल सागर के पास पहुँचकर साक्षात अग्निदेव को देखा और उन्हीं की प्रेरणा से पार्थ ने उन महात्मा को आदरपूर्वक अपना उत्तम एवं दिव्य गाण्डीव धनुष अर्पण कर दिया। उसी पर्व में यह भी कहा गया है कि राजा युधिष्ठिर ने मार्ग में गिरे हुए अपने भाईयों और द्रौपदी को देखकर भी उनकी क्या दशा हुई, यह जानने के लिये पीछे की ओर फिरकर नहीं देखा और उन सबको छोड़कर आगे बढ़ गये। यह सत्रहवाँ 'महाप्रस्थानिक पर्व' कहा गया है। इसमें तत्त्वज्ञानी व्यास जी ने तीन अध्याय और एक सौ तेईस श्लोक गिनकर कहे हैं। तदनन्तर स्वर्गारोहण पर्व जानना चाहिये। जो दिव्य वृत्तान्तों से युक्त और अलौकिक है। उसमें यह वर्णन आया है कि स्वर्ग से युधिष्ठिर को लेने के लिये एक दिव्य रथ आया किंतु महाज्ञानी धर्मराज युधिष्ठिर ने दयावश अपने साथ आये हुए कुत्ते को छोड़कर अकेले उस पर चढ़ना स्वीकार नहीं किया। महात्मा युधिष्ठिर की धर्म में इस प्रकार अविचल स्थिति जानकर कुत्ते ने अपने मायामय स्वरूप को त्याग दिया और अब वह साक्षात धर्मराज के रूप में स्थित हो गया। धर्मराज के साथ युधिष्ठिर स्वर्ग में गये। वहाँ देवदूत ने व्याज से उन्हें नरक की विपुल यातनाओं का दर्शन कराया। वहीं धर्मात्मा युधिष्ठिर ने अपने भाईयों की करुणाजनक पुकार सुनी थी। वे सब वहीं नरक प्रदेश में यमराज की आज्ञा के अधीन रहकर यातना भोगते थे। तत्पश्चात धर्मराज तथा देवराज ने पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर को वास्तव में उनके भाईयों को जो सद्गति प्राप्त हुई थी, उसका दर्शन कराया।

इसके बाद धर्मराज ने आकाशगंगा में गोता लगाकर मानव शरीर को त्याग दिया और स्वर्गलोक में अपने धर्म से उपार्जित उत्तम स्थान पाकर वे इन्द्रादि देवताओं के साथ उनसे सम्मानित हो आनन्दपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार बुद्धिमान व्यास जी ने यह अठारहवाँ पर्व कहा है। तपोधनों! परमऋषि महात्मा व्यास जी ने इस पर्व में गिने-गिनाये पाँच अध्याय और दो सौ नौ (209) श्लोक कहे हैं। इस प्रकार ये कुल मिलाकर अठारह पर्व कहे गये हैं। खिल पर्वों में हरिवंश तथा भविष्य का वर्णन किया गया है। हरिवंश के खिलपर्वों में महर्षि व्यास ने गणनापूर्वक बारह हजार (12000) श्लोक रखे हैं। इस प्रकार महाभारत में यह सब पर्वों का संग्रह बताया गया है। कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं और वह महाभयंकर युद्ध अठारह दिनों तक चलता रहा। जो द्विज अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेदों को जानता है, परंतु इस महाभारत इतिहास को नहीं जानता, वह विशिष्ट विद्वान नहीं है। असीम बुद्धि वाले महात्मा व्यास ने यह अर्थशास्त्र कहा है। यह महान धर्मशास्त्र भी है, इसे कामशास्त्र भी कहा गया है (और मोक्षशास्त्र तो यह है ही)।

इस उपाख्यान को सुन लेने पर और कुछ सुनना अच्छा नहीं लगता। कोकिल का कलरव सुनकर कौओं की कठोर ‘काँय-काँय’ किसे पसंद आयेगी? जैसे पाँच भूतों से त्रिविध (आध्यात्मिक, आदिदैविक और आधिभौतिक) लोकसृष्टियाँ प्रकट होती हैं, उसी प्रकार इस उत्तम इतिहास से कवियों का काव्यरचनाविषयक बुद्धियाँ प्राप्ति होती हैं। द्विजवरों! इस महाभारत इतिहास के भीतर ही अठारह पुराण स्थित हैं, ठीक उसी तरह, जैसे आकाश में ही चारों प्रकार की प्रजा (जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्ज) विद्यमान हैं। जैसे विचित्र मानसिक क्रियाएँ ही समस्त इन्द्रियों की चेष्टाओं का आधार हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण लौकिक-वैदिक कर्मो के उत्कृष्ट फल-साधनों का यह आख्यान ही आधार है। जैसे भोजन किये बिना शरीर नहीं रह सकता, वैसे ही इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी कथा नहीं है जो इस महाभारत का आश्रय लिये बिना प्रकट हुई हो। सभी श्रेष्ठ कवि इस महाभारत की कथा का आश्रय लेते है और लेंगे। ठीक वैसे उन्नति चाहने वाले सेवक श्रेष्ठ स्वामी का सहारा लेते हैं। जैसे शेष तीन आश्रम उत्तम गृहस्थ आश्रम से बढ़कर नहीं हो सकते, उसी प्रकार संसार के कवि इस महाभारत काव्य से बढ़कर काव्य रचना करने में समर्थ नहीं हो सकते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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