एकचत्वारिंश (41) अध्याय: कर्ण पर्व
महाभारत: कर्ण पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद
कहते हैं समुद्र के तट पर किसी धर्मप्रधान राजा के राज्य में एक प्रचुर धन-धान्य से सम्पन्न वैश्य रहता था। वह यज्ञ-यागादि करने वाला, दानपति, क्षमाशील, अपने वर्णनुकूल कर्म में तत्पर, पवित्र, बहुत-से पुत्र वाला, संतान प्रेमी और समस्त प्राणियों पर दया करने वाला था। उसके जो बहुत-से अल्पवयस्क यशस्वी पुत्र थे, उन सबकी जूठन खाने वाला एक कौआ भी वहाँ रहा करता था। वैश्य के बालक उस कौए को सदा मांस, भात, दही, दूध, खीर, मधु और घी आदि दिया करते थे। वैश्य के बालकों द्वारा जूठन खिला-खिलाकर पाला हुआ वह कौआ बड़े घमंड में भरकर अपने समान तथा अपने से श्रेष्ठ पक्षियों का भी अपमान करने लगा। एक दिन की बात है, उस समुद्र के तट पर गरुड़ के समान लंबी उड़ानें भरने वाले मानसरोवर निवासी राजहंस आये। उनके अंगों में चक्र के चिह्न थे और वे मन-ही-मन बहुत प्रसन्न थे। उस समय उन हंसों को देखकर कुमारों ने कौए से इस प्रकार कहा- 'विहंगम! तुम्हीं समस्त पक्षियों में श्रेष्ठ हो। देखो, ये आकाशचारी हंस आकाश में जाकर बड़ी दूर की उड़ानें भरते हैं। तुम भी इन्हीं के समान दूर तक उड़ने में समर्थ हो। तुमने अपनी इच्छा से ही अब तक वैसी उड़ान नहीं भरी। उन सारे अल्पबुद्धि बालकों द्वारा ठगा गया वह पक्षी मूर्खता और अभिमान से उनकी बात को सत्य मानने लगा। फिर वह जूठन पर घमंड करने वाला कौआ इन हंसों में सबसे श्रेष्ठ कौन है? यह जानने की इच्छा से उड़कर उनके पास गया और दूर तक उड़ने वाले उन बहुसंख्यक हंसों में से जिस पक्षी को उसने श्रेष्ठ समझा, उसी को उस दुर्बुद्धि ने ललकारते हुए कहा- चलो, हम दोनों उड़ें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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