महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 40 श्लोक 40-56

चत्वारिंश (40) अध्याय: कर्ण पर्व

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महाभारत: कर्ण पर्व: चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 40-56 का हिन्दी अनुवाद

मद्र देश की स्त्रियाँ प्रायः गोरी, लंबे कद वाली, निर्लज्ज, कम्बल से शरीर को ढकने वाली? बहुत खाने वाली और अत्यन्त अपवित्र होती हैं, ऐसा हमने सुन रखा है। मद्रनिवासी की सिर की चोटी से लेकर पैरों के नखाभ्र भाग तक निन्दा के ही योग्य हैं। वे सब के सब कुकर्म में लगे रहते हैं। उनके विषय में हम तथा दूसरे लोग भी ऐसी बहुत सी बातें कह सकते हैं।

मद्र तथा सिन्धु-सौवीर देश के लोग पाप पूर्ण देश में उत्पन्न हुए म्लेच्छ हैं। उन्हें धर्म-कर्म का पता नहीं है। वे इस जगत में धर्म की बातें कैसे समझ सकते हैं? हमने सुना है कि क्षत्रिय के लिए सबसे श्रेष्ठ धर्म यह है कि वह युद्ध में मारा जाकर रणभूमि में सो जाये और सत्पुरुषों के आदर का पात्र बने। मैं अस्त्र-शस्त्रों द्वारा किये जाने वाले युद्ध में अपने प्राणों का परित्याग करूँ, यही मेरे लिये प्रथम श्रेणी का कार्य है; क्योंकि मैं मृत्यु के पश्चात स्वर्ग पाने की अभिलाषा रखता हूँ। मैं बुद्धिमान दुर्योधन का प्रिय मित्र हूँ। अतः मेरे पास जो कुछ धन-वैभव है, वह और मेरे प्राण भी उसी के लिये हैं। परंतु पापदेश में उत्पन्न हुए शल्य! यह स्पष्ट जान पड़ता है कि पाण्डवों ने तुम्हें हमारा भेद लने के लिये ही यहाँ रख छोड़ा हैं; क्योंकि तुम हमारे साथ शत्रु के समान ही सारा बर्ताव कर रहे हो। जैसे सैंकड़ों नास्तिक मिलकर भी धर्मज्ञ पुरुष को धर्म से विचलित नहीं कर सकते, उसी प्रकार तुम्हारे जैसे सेंकड़ों मनुष्यों के द्वारा भी मुझे संग्राम से विमुख नहीं किया जा सकता, यह निश्चय है। तुम धूप से संतप्त हुए हरिण के समान चाहे विलाप करो चाहे सूख जाओ। क्षत्रिय धर्म में स्थित हुए मुझ कर्ण को तुम डरा नहीं सकते। पूर्व काल में गुरुवर परशुराम जी ने युद्ध में पीठ न दिखाने वाले एवं शत्रु का सामना करते हुए प्राण विसर्जन कर देने वाले पुरुषसिंहों के लिये जो उत्तम गति बतायी है, उसे मैं सदा याद रखता हूँ।

शल्य! तुम यह जान लो कि मैं धृतराष्ट्र के पुत्रों की रक्षा के लिये वैरियों का वध करने के लिए उद्यत हो राजा पुरूरवा के उत्तम चरित्र का आश्रय लेकर युद्ध भूमि में डटा हुआ हूँ। मद्रराज! मैं तीनों लोकों में किसी ऐसे प्राणी को नहीं देखता, जो मुझे मेरे इस संकल्प से विचलित कर दे, यह मेरा दृढ़ निश्चय है। समझदार शल्य! ऐसा जानकर चुपचाप बैठे रहो। डर के मारे बहुत बड़-बड़ाते क्यों हो? मद्र देश के नराधम! यदि तुम चुप न हुए तो तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े करके मांसभक्षी प्राणियों को बाँट दूँगा। शल्य! एक तो मैं मित्र दुर्योधन और राजा धृतराष्ट्र दोनों के कार्य की ओर दृष्टि रखता हूँ, दूसरे अपनी निन्दा से डरता हूँ और तीसरे मैंने क्षमा करने का वचन दिया है- इन्हीं तीन कारणों से तुम अब तक जीवित हो। मद्रराज! यदि फिर ऐसी बात बोलोगे तो मैं अपनी वज्र सरीखी गदा से तुम्हारा मस्तक चूर-चूर करके गिरा दूँगा। नीच देश में उत्पन्न शल्य! आज यहाँ सुनने वाले सुनेंगे और देखने वाले देख लेंगे कि श्रीकृष्ण और अर्जुन ने कर्ण को मारा या कर्ण ने ही उन दोनों को मार गिराया। प्रजानाथ! ऐसा कहकर राधापुत्र कर्ण ने बिना किसी घबराहट के पुनः मद्रराज शल्य से कहा-चलो, चलो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत में कर्णपर्व में कर्ण और शल्य का संवाद विषयक चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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